मंगलवार, 31 दिसंबर 2013
साल भर का लेखा - जोखा-----------------------------------
सोमवार, 9 दिसंबर 2013
मैं, मेरी बेटी और हमारी सरकार ..........
मैं, मेरी बेटी और हमारी सरकार ..........
मेरी बड़ी बिटिया 'नव्या' अब दस साल की पूरी हो चुकी है। इस अवसर पर मुझे आशीर्वाद की ज़रुरत है। आशीर्वाद मुझे उसके लिए नहीं बल्कि अपने लिए चाहिए क्यूंकि अब उसके और मेरे बीच सम्बन्धों की डोर बेहद नाज़ुक मोड़ पर पहुँच चुकी है। इस डोर को कहाँ पर कसना है और कहाँ पर ढील देनी है, यह समझ पाने में कई बार मैं स्वयं को नाकाम पा रही हूँ।
अब वह अपने जन्मदिन पर हाई हील की चप्पल खरीदना चाहती है। मैं पिछले कई दिनों से उसे हाई हील और उसे पहिनने से होने वाली परेशानियों के विषय में बता रही हूँ। मैंने गूगल पर कई साइटें उसे दिखाई जो हाई हील पहिनने से होने वाले नुकसानों के विषय में विस्तार से बता रही हैं। लेकिन जैसे आजकल मोदी के भक्त मोदी के विरूद्ध कुछ नहीं सुनना चाहते, वह भी हाई हील के विरुद्ध एक भी शब्द नहीं सुनना चाहती। टेलीविज़न पर आने वाली अभिनेत्रियों को जब वह ऊंची-ऊंची हील पहिने हुए देखती है तो पूछ बैठती है, ''मम्मा, ये कैसे पहिन लेती हैं ऊंची हील? इन्हें तो चोट नहीं लगती, ये तो इतना बढ़िया नाच भी लेती हैं पेंसिल हील पहिनकर, ये क्या किसी दूसरी दुनिया से आई हैं''? मैं उसे उसकी कम उम्र का हवाला देती हूँ। वह जवाब देती है ''जब अभी से पहिनूँगी तभी तो बड़े होने पर परेशानी नहीं होगी ''।
पहले उसने पेंसिल हील खरीदने की ज़िद की थी, जिसे मेरे द्वारा कड़े स्वर से मना कर दिया गया। उसने मेरे कड़े स्वर को बिलकुल उसी गम्भीरता से लिया जिस गम्भीरता से पाकिस्तान हमारे प्रधानमंत्री के कड़े शब्दों को लेता है। लेकिन पेंसिल हील पर मेरा कड़ा रुख कायम रहा। मेरा रवैया देखकर उसने भी अपना सुर बदल लिया। अब वह पेंसिल हील से उतरकर ब्लॉक हील पर आ गयी। मुझे लगा यह ब्लॉक हील भी कहाँ पहिन पाएगी इसीलिये हाँ कर दी। मैंने उससे साफ़ -साफ़ कह दिया कि ब्लॉक हील, कोयला ब्लॉक का आबंटन नहीं है जो मैं आँख मूँद करके बिना जांच पड़ताल किये उसे थमा दूंगी। आखिर वह मेरी बेटी है। मैं अच्छी तरह से जानती हूँ कि अगर कल के दिन हील पहिनने से उसके पैर में चोट लग गयी या मोच आ गई गयी तो मेरे घरवाले मुझे क्लीन चिट कतई नहीं देंगे।
दुकान में बैठकर मैंने उसे हिदायत दी, चूंकि बाहरी दुनिया के रास्ते बेहद ऊबड़-खाबड़ हैं अतः हील लेने या राजनीति में उतरने से पहले अच्छी से तरह जाँच-परख कर लेनी चाहिए। मुझे शर्तिया यह लगा था कि चलना तो दूर की बात, वह हील पहिन कर सीधी खड़ी भी नहीं हो पाएगी। मैं मन ही मन बहुत खुश हुई। मैं कल्पना कर रही थी कि जैसे ही वह हाई हील पहिनेगी, लड़खड़ा जाएगी या गिर जाएगी। मैंने तो उसके पैर में मोच से भी आगे की बात यानी फ्रैक्चर तक आने की कल्पना कर ली थी, यह सोचकर कि एक बार फ्रैक्चर हो जाएगा तो वह दोबारा हील पहिनने का नाम नहीं लेगी।
मेरी सारी कल्पनाओं को ठेंगा दिखाती हुई मेरी आँखों के सामने उसने हील पहिन ली और दूकान में कई चक्कर लगा डाले, कुछ नहीं हुआ। वह चलती रही, मैं उसे देखती रह गयी या कहें कि उसके गिरने का इंतज़ार करती रह गयी। यहाँ तक कि उसने यह तक कह डाला कि वह इन्हें ही पहिनकर घर जाएगी। मैं यह सोचकर खुश हो गयी कि शायद बाज़ार में चलते समय यह गिर पड़े और मैं उसी पल दुकान में जाकर हील वापिस कर दूंगी। इस तरह एक बार चोट खाने पर हाई हील के प्रति उसका दीवानापन ख़त्म हो जाएगा। लेकिन वह तो आत्मविश्वास से लबालब भरी हुई भीड़ से भरे हुए बाज़ार में चलती रही, मैं उसे देखकर लड़खड़ाती रही। मेरा हाथ पकड़कर उसने मुझे कई बार किनारे खींचा ''ठीक से चलो मम्मा, यह बाज़ार है, गिर जाओगी''। अब तक मेरे बचे-खुचे दिमाग का फ्रैक्चर हो चुका था।
उसकी नज़र में हनी सिंह सुर सम्राट है। उससे बड़ा गायक न कोई हुआ है न होगा। वह सदी का सर्वश्रेष्ठ गाना ''तू बॉम्ब लगती मैनु'' को ठहराती है। मैं उससे कहती हूँ कि यह गाना कितना वाहियात है या इस गाने में समस्त स्त्री जाति का अपमान किया गया है। इस गाने को नहीं सुनना चाहिए। इसके अलावा मैं हनी सिंह के विचित्र हेयर स्टाइल की, उसकी अनोखी नाक की, तरह-तरह से मज़ाक बनाती हूँ, हनी सिंह के विरुद्ध किये गए मेरे प्रलाप को वह अनर्गल समझकर पर वह अपने कान बंद कर देती है। जब मैं हनी सिंह के विरूद्ध अदालत में चल रहे केस का हवाला देती हूँ तो वह कहती है ''पता है मुझे, मेरे दोस्तों ने बताया है कि जो जितना ज्यादा प्रसिद्ध होता है उसके ऊपर उतने ही केस होते हैं, केस होना तो आजकल प्रसिध्दि का पैमाना है''। मैं उसके दोस्त और उनकी अक्लमंदी पर कुर्बान हो जाती हूँ।
मैं उसे अपने ज़माने के सभ्य, शालीन और मधुर गानों के बारे में बताती हूँ कि कितनी मिठास होती थी उस समय के गानों में, तभी तो आज तक याद रहते हैं और आजकल के गाने अभी सुनकर अभी भूल जाने वाले होते हैं। बस शोर ही शोर सुनाई देता है। इस पर वह पिछले महीने के सारे हिट गानों के बोल, जिनका मुझे एक भी शब्द समझ में नहीं आया था, ज्यों के त्यों सुना देती है। फिर वह मुझसे कहती है ''अच्छा, कोई अपने ज़माने का हिट गाना सुनाओ''| मुझे बिना प्रयास के याद आता है ''तू चीज़ बड़ी है मस्त-मस्त,'' मैंने उसे जानकारी दी'' यह गाना कई महीनों तक सुपर -डुपर हिट रहा था, मैं इस गाने पर हर शादी में नाच किया करती थी। वह पूछ्ती है ''इस गाने में ये जो चीज़ शब्द आया है वह क्या है मम्मी ? मैं फ़ौरन कहती हूँ ''वही चीज़ जिसे पिज़्ज़ा में डाला जाता है, उसे ही मस्त कहा गया है''। वह मेरी और उसी तरह अविश्वास से देखती है जिस तरह जनता राहुल गांधी की ओर देखती है जब वह ऐलान करते हैं कि वे अब कॉंग्रेस में बड़ा बदलाव करेंगे और आम आदमी को जगह देंगे।
इधर कुछ समय से उसकी ज़िदों का आकार-प्रकार देश के घोटालों की तरह दिन बढ़ता जा रहा है। अब वह टच स्क्रीन फोन लेने की ज़िद करने लगी है। मैं उससे कहती हूँ, ''टच स्क्रीन
फ़ोन को चलाना गठबंधन सरकार को चलने से ज्यादा मुश्किल होता है। यह बस शो करने की चीज़ होती है। किसी का नंबर लगाना चाहोगे तो किसी और का लग जाता है। ज़रा सा टच इधर से उधर हुआ नहीं कि मुसीबत, और अभी उसे इसकी ज़रुरत ही क्या है''? वह अकाट्य तर्क देती है कि उसकी क्लास में सबके पास टच स्क्रीन फोन है सिर्फ वही इकलौती है जिसके माँ-बाप उसे फोन नहीं दे रहे। मैं कहना चाहती हूँ लेकिन कह नहीं पाती कि उसकी क्लास के सारे बच्चे जब फुल मार्क्स लाते हैं और वह उनके आधे भी नहीं लाती तब हम तो उससे कुछ नहीं कहते। स्कूल वाले हर महीने माँ-बाप से यह कहना नहीं भूलते कि अपने बच्चे की तुलना किसी भी बच्चे से कभी मत करिये। इससे बच्चों के अंदर आत्मविश्वास ख़त्म हो जाता है और इंफ़ीरियॉरिटी कॉम्प्लेक्स आ जाता है, लेकिन बच्चों की ऐसे तुलनात्मक रवैये से उनके माता-पिता के दिल और आत्मा पर क्या बीतती होगी, इससे उन्हें कोई लेना देना नहीं है।
मेरे फोन न लेने के अड़ियल रवैये पर वह रूंआसी हो जाती है। उसके आंसुओं की दाल नहीं गलती है तो वह ''चंदा मामा से प्यारा मेरा मामा'' गाती हुई मेरे भाई को फोन करती है। दोनों मिलकर कुछ ही सेकेंडों में मेरे विरूद्ध अविश्वास प्रस्ताव लाकर मिनटों में पास भी कर देते हैं। मेरे भाई ने खुद को इस समय बिलकुल रेल मंत्री समझा और अपनी भांजी की इस ज़िद पर उसके लिए टच स्क्रीन एनरोइड फोन खरीद कर दूसरे ही दिन कोरियर कर दिया। मैं मन मसोसते हुए सोचती हूँ, ''कोई बात नहीं, फोन भले मंगा लिया हो, लेकिन इसे चलाना कोई हंसी खेल थोड़े ही है। जल्दी ही इसे पता चल जाएगा कि यह दिखने में जितना अच्छा लगता है, उतना ही कठिन इसको उपयोग में लाना होता है''। वह तुरंत उसे चार्ज करके मेरे सामने ही अपने मामा का धन्यवाद ज्ञापन करने फोन करने लगती है। उसके बाद मेरे पुराने नोकिया ११०० में उसका भेजा हुआ मैसेज मैं रिसीव करने के लिए बाध्य हो जाती हूँ, जिसमे लिखा होता है ''क्या कहती थी तुम, मुझे टच स्क्रीन चलाना नहीं आएगा, अब देख लिया''। एक ही पल में वह वह ''आप'' पार्टी की तरह कॉन्फिडेंट और इस कॉन्फिडेंस को देखकर और मैं कॉंग्रेस और भाजपा हो जाती हूँ। मैं आँखें पोछने लगती हूँ क्यूंकि मेरी आँखें अब धुंधलाने लग जाती हैं।
स्वयं को बायपास किये जाने की इस घटना से आहत मैं स्वयं को अन्ना हज़ारे महसूस करने लगती हूँ। इस अपमान का बदला मैं दूसरे तरीके से निकालती हूँ। बातों ही बातों में उसे कोसने लगती हूँ कि जब मैं उसकी उम्र की थी तो घर का सारा काम मुझे आता था और मैं खाना भी बना लिया करती थी, कढ़ाई, सिलाई और बुनाई तो और भी छोटी उम्र से आ गया था। और एक वह है कि अभी तक चाय भी बनाना नहीं जानती। मैं सरकार की तरह अपनी उपलब्धियों को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करने लगती हूँ। वह इसे चुनौती के रूप में ग्रहण करती है और यह ज़िद पकड़ लेती है कि अब से वही चाय बनाया करेगी। उसने जब पहली चाय बनाई तो मेरा दिल हालिया विधान सभा के चुनावों के नतीज़ों को सुनकर कॉंग्रेस पार्टी के दिल की तरह धक् से रह गया। इन पाँच मिनटों के दौरान मैंने दस बार जाकर गैस को चेक किया। बीस बार आग के बहुत पास न जाने का निर्देश दिया। फिर उसने आटा गूंथने की ज़िद की तो मैंने उसकी प्रगति को यह कहकर रोक दिया कि '' अभी तेरी ऐसा काम करने की उम्र नहीं है, जब हो जाएगी तो मैं खुद बता दूंगी''। इसके आगे मैं यह जोड़ना नहीं भूली ''अभी तू सिर्फ अपनी पढ़ाई में ध्यान लगा।''
बचपन से लेकर अभी तक उसके कपडे मैं खुद ही खरीद कर लाती रही हूँ। अब पहली बार उसने मेरे खिलाफ बगावत का झंडा बुलंद कर दिया है और इस शीतकालीन सत्र में वह बहुप्रतीक्षित विधेयक बिना किसी की सहमति लिए पारित कर दिया जिसमे वह अपने हिसाब से अपनी पसंद से अपने कपडे खरीदेगी। मैं इस विधेयक का पुरज़ोर तरीके से विरोध करती हूँ और इस हमारे घरेलू संविधान की इस प्राचीन धारा का हवाला देती हूँ कि ''कपडे हमेशा दूसरों की पसंद से पहिनने चाहिए'' इस धारा से तुरंत किनारा करते हुए वह ऐलान कर देती है ''कपडे मुझे पहिनने हैं या दूसरों को, जब दूसरे मेरी पसंद के कपडे नहीं पहिनते तो मैं क्यूँ उनकी पसंद के कपडे पहनूं''? वह मेरे साथ दूकान में जाती है और छोटे-छोटे कपड़े छांटती है । मेरा दिल फिर से धक् रह जाता है। मैं उसे छोटे कपड़ों के द्वारा पैदा होने वाली असुविधाओं का हवाला देती हूँ। ठीक से कहीं भी न बैठ पाने का तर्क भी उसे उसके निर्णय से डिगा नहीं पाता। ''इन छोटे और खुले कपड़ों से ठण्ड लग जाएगी, बुखार आ जाएगा, मच्छर काटेंगे, डेंगू, मलेरिया कुछ भी हो सकता है''| मेरे गयी हर दलील को वह खारिज करती चली जाती है। मेरा मन मुझे धिक्कारता है कि कैसी माँ हूँ मैं जो अपने ही बच्चे को बीमारियों के नाम से डरा रही हूँ। इतना प्रयास करने के बाद भी मेरी अंतिम कोशिश नाकाम सिद्ध होती है और उसकी अलमारी में छोटे-छोटे कपडे अतिक्रमण करके अपना स्थान बनाने में सफल हो जाते हैं। मेरा विरोध मेरे शहर की ट्रैफिक व्यवस्था की तरह फिर से धड़ाम हो जाता है।
मैं उसे डॉक्टर, इंजीनियर या अन्य कोई उच्च पद पर जाने के लिए प्रेरणा देने की कोशिश करती हूँ, लेकिन अपनी उम्र की हर लड़की की तरह वह भी फिल्मों में जाना चाहती है या टी.वी. सीरियलों में अभिनय करना चाहती है। मुझे अच्छा तो नहीं लगता लेकिन मुझे इन अभिनेत्रियों और उनकी ज़िंदगी की कठिनाइयों की ऐसी काली तस्वीर बनानी पड़ती है कि अगर कोई अभिनेत्री सुन ले तो पता नहीं क्या हो, मसलन मैं उसे बताती हूँ ''इन हीरोइनों की भी कोई ज़िंदगी होती है, न खाने का समय न सोने का समय। कभी भी शूटिंग पर जाना पड़ जाता है। जैसे तुम अपनी पसंद का जो कुछ भी खाना चाहो, तुरंत खा लेती हो, ये बेचारी नहीं खा सकतीं। तुम गर्मियों के दिनों में तकरीबन रोज़ ही आइसक्रीम खाती हो और याद करो जब भी कोई मिलने आने वाला चॉकलेट लेकर घर पर आता है तो बिना एक मिनट गंवाए तुरंत उस चॉकलेट को अपने मुंह के हवाले कर देती हो और ये बेचारी हीरोइनें, इन्हें तो आइसक्रीम, चॉकलेट खाए हुए सालों बीत जाते हैं। एक चॉकलेट = चार घंटे एक्सरसाइस इनका फॉर्मूला होता है। इतनी खूबसूरत होकर भी इन्हें सबसे छुप कर रहना पड़ता है। किसी भी धर्म को मानने वाली हों, सभी को बाहर निकलते समय इस्लाम का सहारा [ बुर्का ] लेना पड़ता है। ये सार्वजनिक स्थानों पर नहीं जा सकतीं। कभी अकेले चली भी जाती हैं तो लोग कपडे तक फाड़ देते हैं। मैं उसे कुछ टॉप की हीरोइनों का इंटरव्यू पढ़ने के लिए देती हूँ जिसमे वे बहुत दुःख के साथ अपने ह्रदय की वेदना प्रकट करती हैं ''प्रसिद्ध होने की सबसे बड़ी कीमत यह चुकानी पड़ती है कि वे मन करने पर भी वे सड़क के किनारे खड़े होकर पानी-पूरी नहीं खा सकती हैं ''। जिन फिल्मों की चमक-दमक देखकर तुम आकर्षित हो रही हो उसकी शूटिंग करना तो और भी गंदा काम है। एक ''नमस्ते'' कहने में ज़रा गड़बड़ हुई नहीं कि दिन भर में पचास बार तक नमस्ते कहना पड़ता है । एक गाने की शूटिंग में महीनों बीत जाते हैं । अगर तुम्हें अपनी किताब का एक पाठ पूरे एक महीने तक पढ़ना पड़े या एक ही किस्म का खाना एक महीने तक खाना पड़े, तो तुम्हें कैसा लगेगा, ज़रा सोचो । ये बेचारी तो अपने मन से कुछ भी शॉपिंग नहीं कर सकतीं । इनका सारा पैसा बैंक में रखे - रखे सड़ जाता है । और फिर ज़रा सी बूढ़ी हुई नहीं कि सब पूछना बंद कर देते हैं ''। वह बड़े आश्चर्य से मेरी बातें सुनती है और अपनी आँखों को बड़ी - बड़ी करके प्रश्न करती है '' मम्मा ! तो फिर ये हीरोइन बनती ही क्यूँ हैं ? मैं तपाक से शीला दीक्षित की तरह जवाब देती हूँ ,'' बेवकूफ हैं वो और उनकी मम्मियां तेरी मम्मी की तरह समझदार नहीं हैं ना इसीलिये इन्हें सही मार्गदर्शन नहीं मिल पाया, लेकिन तू इस मामले में भाग्यशाली है कि तेरी माँ मैं हूँ ''।
जैसे दिल्ली वालों के लिए आजकल झाड़ू एक जादुई वस्तु हो गयी है, उसे दिल के आकार की हर वस्तु में जादुई आकर्षण महसूस होता है। वह बाज़ार में ऐसे कार्ड्स या ऐसे गिफ्ट देखती है जिस पर दिल बना होता है और आर - पार तीर निकला रहता है। ड्राइंग बनाते समय यही उसकी प्रिय आकृति होती है। कैंची से खेल करने में सारे आकार छोड़कर दिल के ही आकार के टुकड़े काटती है। मैं उसे समझाती हूँ कि यह दिल अगर सामने पड़ा हो तो बहुत ही घिनौना लगता है। बिलकुल लाल मांस के लोथड़े जैसा। मैं उसे दिल की वास्तविक फोटो दिखाती हूँ और बहुत ही विद्रूप तरीके से उसका वर्णन करती हूँ। उसे जानकारी देती हूँ कि इंसानी शरीर के इस हिस्से को बाज़ार ने सिर पर चढ़ा रखा है वर्ना दिल से ज़यादा उपयोगी दिमाग होता है। लेकिन दिमाग की संरचना उतनी ग्लैमरस नहीं होती इसीलिये दिल का बाज़ार इस कदर गर्म हो गया है। फ़िल्मी गानों, लेखकों और शायरों की बदौलत दिल आज दिमाग से ऊपर की वस्तु बन गया है। असल में दिमाग ही नहीं रहेगा तो दिल किसी काम का नहीं रहेगा। बल्कि दिल से ज़्यादा ख्याल किडनी, लीवर और फेफड़ों का रखना चाहिए। इनमे से एक भी अंग खराब हुआ तो ज़िंदगी बहुत तकलीफदेह हो जाती है। मेरे इस बयान वह मुझे ऐसी घृणास्पद नज़रों से देखती है जैसे कुछ दिनों पहले जनता सी. बी. आई. के डायरेक्टर या आजकल फारुख अब्दुल्ला के स्त्री विषयक बयानों को देख रही है।
जब से उसे थोड़ी से अक्ल आनी शुरू हुई है मैं उसे रूपये, पैसों का मूल्य समझाने की भरसक कोशिश कर रही हूँ। जब-जब वह जेब खर्च मांगती है, मैं उसे बचत करने से होने वाले फायदे गिनाने लगती हूँ। पिछले तीन सालों से उसे हर महीने जेब खर्च देने वादा करती हूँ और हर बार ''अगले साल से दूंगी'' कहकर महिला आरक्षण बिल की तरह ठन्डे बस्ते में डाल देती हूँ। दस रूपये देकर पंद्रह बार हिसाब पूछती हूँ। पाई-पाई पर पैनी नज़र रखती हूँ। नाराज़ होकर वह मुझे ''चुनाव आयोग '' की उपाधि दे देती है। मैं बुरा नहीं मानती मुझे बुरा मांगने का कोई हक़ भी नहीं है। क्यूंकि वह भी वही कह रही है जो मैं अपनी माँ से कहा करती थी। फैशन और इतिहास अपने को दोहराए तो उसमे हैरानी नहीं करनी चाहिए। जब कोई घर में आने-जाने वाला रिश्तेदार उसके हाथ में शगुन के रूपये रखता है तो मैं उससे यह झूठ बोलकर कि ''अभी मेरे पास पैसे नहीं है '' सारा पैसा उधार मांग लेती हूँ, उसके द्वारा बार-बार तकाजा किये जाने पर टालने के लिए कह देती हूँ ''तेरे अकाउंट में जमा करवा दिए हैं, जब तू बड़ी हो जाएगे तुझे मिल जाएंगे ''।
आजकल उसके साथ ज़रा भी गड़बड़ हो जाए तो वह मुझे खेमका समझकर मुझ पर चार्ज शीट लगाने में ज़रा भी देरी नहीं करती है, ''सब तुम्हारी वजह से हो रहा है''। स्कूल में डांट पड़े, मैं ज़िम्मेदार, काम अधूरा रह जाए, मेरी वजह से, सुबह तैयार ठीक से न हो पाए, मैं कटघरे में, वैन आने में देरी हो जाए, मेरा कुसूर , कॉपी खो जाए या किताब फट जाए, मैं ही दोषी ठहराई जाती हूँ। अच्छा हुआ कि अभी उसकी राजनैतिक समझ विकसित नहीं है अन्यथा वह भारत- पाकिस्तान के बीच बिगड़े हुए सम्बन्धों का भी कुसूरवार मुझे ही ठहराती। उसके रोज़ाना के इस दोषारोपण के कार्यक्रम से पहले मुझे बहुत दुःख पहुँचता था, लेकिन पिछले कुछ समय से, जबसे मैं खुद को सरकार और उसको आम आदमी समझने लगी हूँ, मेरी तकलीफों का ग्राफ़ बहुत नीचे आ गया है। अब मेरी घरेलू स्थिति भी देश की स्थिति की तरह तनावपूर्ण किन्तु नियंत्रण में रहती है।
मैं उसके अंदर पढ़ने की आदत विकसित करना चाहती हूँ। मैं चाहती हूँ कि वह भी मेरी तरह किताबों को अपना मित्र बना ले। इसके लिए मैं हर हफ्ते कोई न कोई कहानी की किताब खरीद लाती हूँ। वह मुझे दिखाने के लिए मेरे सामने चंद पन्नों को पलटती है फिर बंद करके कहीं किताबों के ढेर के नीचे दबा देती है। जब मैं दोबारा उस किताब के बारे में पूछती हूँ तो कह देती है ''अभी मिल नहीं रही है''। मैं उसके इस बहाने को भली-भांति समझती हूँ, लेकिन जिस प्रकार सारी राजनैतिक पार्टियां दागियों को पार्टी से बाहर निकाल पाने की हिम्मत नहीं जुटा पाती हैं उसी प्रकार मैं किताबों के ढेर के सबसे नीचे दबी उस किताब को निकालने की हिम्मत नहीं जुटा पाती हूँ, ''चलो, कोई बात नहीं, कभी न कभी वह दिन अवश्य आएगा जब किताबें उसे अपनी तरफ खींचने में कामयाब हो जाएँगी'', मैं अपने मन को समझा लेती हूँ। लेकिन हर समय चलने वाले कार्टून चैनल मुझसे बर्दाश्त नहीं होते। मैं टी. वी. पर समाचार लगाकर उससे कहती हूँ, ''समाचार देखा कर। इससे सामान्य ज्ञान बढ़ता है'' जब तक मैं बैठी रहती हूँ, तब तक वह मुझे दिखाने के लिए बड़े ध्यान से समाचारों को देखती है, जैसे ही मैं रसोई में जाती हूँ, वह चैनल बदल देती है और फिर से कार्टून लगा देती है। मेरे डाँटने पर उसका कहना होता है ''क्या मम्मी, हर चैनल पर चार-छह लोग बैठे बकर-बकर कर रहे हैं, इसे समाचार कहते हैं क्या? कोई भी किसी को बात पूरी नहीं करने दे रहा है, इतनी देर में मुझे किसी का एक भी शब्द समझ में नहीं आया। ऐसा लग रहा है जैसे तुम्हारे और पापा की बीच रोज़ होने वाली बहस को टी. वी. में देख रही हूँ। इससे सामान्य ज्ञान कैसे बढ़ेगा मेरा, ज़रा बताओ तो? इससे अच्छा तो डोरेमॉन है, जिसके पास नए-नए गैजेट्स हैं ''। उसने मेरी बोलती उसी तरह बंद कर दी जिस तरह ''आप'' पार्टी वालों ने अपनी शानदार जीत पर अपना मखौल उड़ाने वालों की।
वह फेसबुक में अपना अकाउंट खोलने के लिए कहती है, मैं उसका बैंक में अकाउंट खुलवा देती हूँ। वह कहती है उसके सारे दोस्तों के फेसबुक में अकाउंट हैं और वे सभी आपस में चैट करते हैं। मैं कहती हूँ फेसबुक में १८ साल के होने से पहले कोई अकाउंट नहीं खोल सकता, उसके दोस्तों ने फेसबुक को अपनी उम्र के विषय में गलत जानकारी दी होगी। झूठ बोलना अच्छी बात नहीं है। कभी फेसबुक वाले चेकिंग करेंगे तो ऐसे बच्चों को जेल तक हो सकती है ''। जेल का नाम सुनकर वह डर जाती है और अपनी ज़िद कुछ समय के लिए छोड़ देती है। मैं कुछ समय तक राहत की सांस ले लेती हूँ। जानती हूँ वह पकिस्तान की तरह ज्यादा दिन तक चुप नहीं रहेगी। जिस तरह पकिस्तान को बीच-बीच में कश्मीर का राग आलापे बिना चैन नहीं आता उसी तरह वह भी कुछ दिनों बाद '' फेसबुक '' का आलाप ज़रूर आलापेगी।
कुछ महीनों पहले तक इस बात पर मुझे ज़रा भी यकीन नहीं था कि मैं अपने विषय में कभी इतनी सफाई से झूठ बोल सकती हूँ। मैं उसे बताती हूँ कि जब मैं उसकी उम्र की थी तो अपनी माँ का बहुत कहना मानती थी। वह मुझसे जो कुछ भी करने के लिए कहती थी, मैं तुरंत दौड़-दौड़ कर वह काम किया करती थी। मेरी माँ भी मेरी इस बात का पूर्ण-रूप से समर्थन करती है। ठीक उसी प्रकार से जैसे मेरी नानी मेरी माँ के विषय में मुझसे झूठ बोला करती थी। यह झूठ खानदानी कंगनों की तरह पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होता आ रहा है। मुझे पक्का विश्वास है कि जब उसकी बेटी इतनी बड़ी हो जाएगी तो वह भी ऐसे ही झूठ बोलेगी और मैं उसकी बात का ऐसे ही आँख मूँद कर समर्थन करूंगी।
यूँ तो उसको मेरी हर बात से आपत्ति है लेकिन सबसे ज्यादा आपत्ति उसे इस बात से है जब मैं एक ही पल में दो अलग-अलग बातें करती हूँ। मसलन जब वह कुछ खरीदने के लिए अकेले दुकान में या पड़ौस में खेलने जाना चाहती है तो मैं उसे यह कहकर रोक देती हूँ कि अभी वह बहुत छोटी है। अकेले आना-जाना उसके लिए सुरक्षित नहीं है, चाहे वह पड़ोस ही क्यूँ न हो। जब वह अपनी ढाई साल की बहिन के साथ होती है और उससे झगड़ती है तब कहती हूँ कि वह इतनी बड़ी हो गयी है और इस तरह से अपनी छोटी बहिन से लड़ती है, उसे शर्म आनी चाहिए। वह समझ नहीं पाती कि मेरी कौन सी बात को सही माने। वह देश की जनता सी कन्फ्यूज्ड हो जाती है कि मीडिया के स्टिंग ऑपरेशन को सच माने या अपनों द्वारा दी गयी क्लीन चिट को।
इधर कुछ समय से मैं खुद में और स्टिंग ऑपरेशन करने वालों में फर्क नहीं कर पा रही हूँ। छिप-छिप कर उसके फोन सुनने लगी हूँ। सारी कॉल डीटेल खंगालती हूँ। उसके मेसेज पढ़ती हूँ।कंप्यूटर पर उसने क्या सर्च किया, उसके पीठ पलटते ही चेक करती हूँ, फिर उसे यह बताकर कि उसने क्या सर्च किया था उसे आश्चर्यचकित कर देती हूँ। वह आश्चर्य से पूछती है ''मम्मा, तुम्हें ये सब कैसे पता चल जाता है ''? इस पर मैं बड़े ही रहस्यमय तरीके से मुस्कुराती हूँ और जवाब देती हूँ ''तू मेरी बेटी है ना, मेरे खून से बनी है। तू कुछ भी करेगी मुझे पता चल जाएगा, हम मम्मियों के लिए भगवान् ने ऐसी ख़ास व्यवस्था कर रखी है''। इस बात को वह बिना तर्क किये स्वीकार कर लेती है और मान लेती है कि मेरे पास कोई ईश्वर प्रदत्त अदभुद शक्ति है। उसकी पीठ पीछे उसके बैग की तलाशी लेती हूँ । कॉपी के हर पन्ने की सूक्ष्मता से जांच-पड़ताल करती हूँ, खासतौर से पीछे के पन्नों की। मैं जानती हूँ कॉपी के पीछे के पन्नों में कई रहस्य छिपे होते हैं। कहीं आते-जाते समय उसके चेहरे को गौर से देखती हूँ कहीं उसने मेकअप तो नहीं कर रखा है। उसके डर से मैंने लिपस्टिक और काजल लाना और लगाना दोनों बंद कर दिया है। मैं जासूसी के मामले में साहेब को भी मात देने लगी हूँ। उसकी कक्षा में पढ़ने वाले हर लड़के के बारे में घंटों तक पूछताछ करती हूँ। उनकी आदतों के विषय में, उनके घरेलू माहौल के बारे में तफ्सील से जानना चाहती हूँ। वे आपस में क्या बातें करते हैं, यह जानने के लिए लालायित रहती हूँ। मैं हर सम्भावित जगह से खतरे का सुराग तलाशने की कोशिश में लगी रहती हूँ। जब वह कक्षा के किसी लड़के की बात बताती है की तो मेरे कान खड़े हो जाते हैं। ट्यूशन में कौन-कौन लड़के, कहाँ-कहाँ से आते हैं? उनके क्या नाम हैं? कहाँ रहते हैं? किस तरह की मज़ाक करते हैं? कोई छूने की कोशिश तो नहीं करता? कैमरे वाला फोन तो नहीं लाते? आज मैम की जगह उनके भाई ने क्यों पढ़ाया? दरवाज़ा बंद तो नहीं किया आदि आदि । कभी-कभी स्वयं ट्यूशन में जाकर चुपचाप दरवाज़े के पास खड़ी हो जाती हूँ और बातें सुनने की कोशिश करती हूँ। कई बार स्वयं पर शर्म भी आती है लेकिन दिल में इस कदर दहशत भर गयी है कि स्वयं को ऐसा करने से रोक नहीं पाती हूँ।
अपनी इन्हीं बेतुकी और ऊल-जलूल हरकतों की वजह से अपनी दस साल की बच्ची की नज़र में एक नासमझ माँ बन कर रह गयी हूँ। जब वह कहती है, ''तुम्हें आता ही क्या है''? ''तुम्हें पता भी है आजकल बच्चों के फैशन के बारे में'' ,''तुम ओल्ड फैशन की हो'', ''आखिर तुम्हें हो क्या गया है?''। मैं हँसते-हँसते उसकी बात को टाल देती हूँ। मैं कहती हूँ ''यह मेरा भी ज़माना है बच्चे''। वह नहीं मानती। उसकी नज़र में अब मैं पुराने ज़माने की हो गयी हूँ। जब मैं उसे स्त्री सुरक्षा और आजकल के हिंसक हो चुके वातावरण के विषय में बताना चाहती हूँ तो वह मुझे डरपोक समझती है। कहती है ''अगर कोई मेरे साथ बदतमीज़ी करेगा तो मैं उसे एक लात मारकर गिरा दूंगी, मैं तुम्हारी तरह डरपोक नहीं हूँ''। दस दिन सीखे गए कराटे के बल पर वह ''मुझे कराटे आता है'' कहकर वह हा-हू करके, आढ़े-तिरछे हाथ पैर घुमाती है तो मैं हंस पड़ती हूँ। इस पर वह नाराज़ हो जाती है। मैं उसे बताती हूँ कि अपने स्कूल के ज़माने में मैं बहुत बहादुर लड़की मानी जाती थी। मेरे साथ बदतमीज़ी करने की किसी की हिम्मत नहीं होती थी। लेकिन अब समय ऐसा आ गया है कि ज़रा-ज़रा सी बात पर डर लगने लगता है। इस पर वह अपने अचूक अस्त्र फेंकती है, ''काश! मैं लड़का होती, या ''मुझे पैदा ही क्यूँ किया तुमने'', ''इससे तो मैं पैदा होते ही मर जाती'', ''लड़कियों को भगवान् पैदा ही क्यूँ करता है?'' सरीखे कई भावुक वाक्य, जो मुझे चुप्पी लगाने पर मजबूर कर देते हैं।
इन दिनों मैं उसे कभी बेहद प्यार करती हूँ, कभी यूँ ही उसके बालों में हाथ फिराती हूँ , कभी ज़ोर-ज़ोर से डाँठने लगती हूँ। कभी बात-बात पर टोकती हूँ तो कभी तमीज से बोलने के लिए कहती हूँ। मेरी सारी डांठ-डपट को वह बिलकुल सुप्रीम कोर्ट की डांट समझती है और एक कान से सुनकर दूसरे कान से देती है। मैं उसे अपने-आस पास की अच्छी लड़कियों का उदाहरण देती हूँ ताकि वह भी उनकी तरह एक अच्छी और आज्ञाकारी लड़की बने लेकिन वह है कि बिलकुल मेरी तरह बन रही है। वही तेवर, वैसी ही आदतें, वही स्वभाव का अक्खड़पन और बददिमागी, वही बात-बात पर मुंह लगना और बिलावजह बहस करना। लगता है कि मैं अपने को ही आईने में देख रही हूँ। हर माँ की तरह मैं चाहती हूँ कि उसे सिखाऊं कि लोगों के साथ कैसे तमीज से पेश आना चाहिए, लेकिन यह मेरे समय का दुर्भाग्य है कि मुझे उसे बदतमीज़ लोगों से कैसे पेश आना चाहिए, यह सिखाना पड़ता है।
कहते हैं कि माँ अपनी बेटियों की सबसे बड़ी सहेली होती है लेकिन मैं तो उसके लिए एक कठिन पहेली बनती जा रही हूँ। हम माँ-बेटी के बीच की यह खाई देश में अमीर और गरीब के बीच की खाई से भी ज्यादा चौड़ी होती जा रही है और इसे भरने का कोई उपाय मुझे दूर-दूर तक नज़र नहीं आ रहा है।
गुरुवार, 28 नवंबर 2013
आओ गुडलक निकालें .......
गुरुवार, 21 नवंबर 2013
अच्छा है इन दिनों.......
सोमवार, 18 नवंबर 2013
तोता, मिर्च और महिलाओं का सम्मान ....
हमारे देश में महिलाओं को सम्मान देने की बहुत प्राचीन परंपरा है । उन्हें सदा सम्मान के साथ देखा जाता है । ऐसा सम्मान दुनिया के किसी भी देश में देखने को नहीं मिलता । नवरात्र के दिनों में लोग कन्या पूजन के दिन जिस श्रद्धा से कन्याओं के चरण स्पर्श करते हैं उसी श्रद्धा से बाकी दिन उसके शरीर के बाकी हिस्सों को स्पर्श करते हैं ।
इससे अच्छे तो वह लोग होते हैं जो महिलाओं का सम्मान नहीं करते बल्कि उनके साथ बराबरी का व्यवहार करते हैं । सम्मान देने वाला व्यक्ति '' बेटी यहाँ बैठ जाओ '' कहकर बस या ट्रैन में तुरंत अपनी सीट को छोड़ देता है । खुद खड़े हो जाता है और मौका मिलते ही लगे हाथ खड़े - खड़े ही सम्मान देना शुरू कर देता है । बेटी शब्द के सम्मान के बोझ तले दबी महिला कुछ कह भी नहीं पाती है, क्यूंकि आस - पास बैठे सभी यात्रियों ने उसे ''बेटी'' कहते हुए सुना होता है ।
गुरुवार, 7 नवंबर 2013
, ''एक नेता ने टिकट ना मिलने के कारण आत्महत्या कर ली ''
बंधुओं, सदियों से आम लोगों को नेतागणों से यह शिकायत रही है कि हमेशा उन्हें ही नेताओं के द्वारे जा-जाकर आत्महत्या करनी पड़ती है, किसी नेता को कभी किसी ने आत्महत्या करते न देखा न सुना | ऐसे, सदा-शिकायती लोगों की ज़ुबान को नेताजी ने अपने अमूल्य जीवन का बलिदान देकर सदा के लिए चुप करा दिया है | आम जन को इस शहीद नेता की नीयत पर ज़रा भी शक नहीं करना चाहिए | हमारे देशवासियों की यह बहुत ही ग़लत आदत है कि नेता के अच्छे काम को भी वे शक की नज़र से ही देखते हैं | हो न हो यह स्वर्गीय नेता अपनी पत्नी से बेपनाह मुहब्बत करता होगा और आजकल की पत्नियां किस पल क्या मांग बैठें, कुछ नहीं कहा जा सकता । नेता जी ने अपनी पत्नी से पूछा होगा, ''कहो प्रिये! तुम्हें क्या लाकर दूँ? कहो तो आसमान में जाकर चाँद-तारे तोड़ लाऊं''? पत्नी ने कहा होगा, ''चाँद का क्या अचार डालूंगी ? और तारों से मेरा क्या भला होगा? मुझे तो तुम फ़लानी पार्टी का टिकट लाकर दो, तभी मानूंगी कि तुम मुझसे सच्चा प्यार करते हो |'' पति चाँद-तारों को तोड़ने की तैयारी कर रहा होगा कि अचानक चुनाव का टिकट बीच में आ गया | कहना न होगा कि पति ने तरह-तरह के प्रलोभन दिए होंगे - होनोलूलू से लेकर टिम्बकटू तक का टिकट सेवा में प्रस्तुत किया होगा | मल्टीप्लेक्स का महंगा से महंगा टिकट भी पत्नी की इस अनोखी मांग को रिप्लेस नहीं कर पाया होगा । ''सारी खुदाई एक तरफ, पार्टी की टिकट कटाई एक तरफ'' सच है कि राजनीति का दुनिया की कोई भी भौतिक वस्तु मुकाबला नहीं कर सकती । जन सेवा की भावना ऐसी ही होती है, जब उछाल मारती है तो उसे दुनिया का कोई प्रलोभन नहीं रोक सकता ।
लेकिन टिकट काटने वालों ने यानी हाईकमान ने पत्नी के प्रति उनका समर्पण और निष्ठा को नहीं देखा होगा | टिकट उसी का कटा जिसने काटा होगा । चेक जितना बड़ा कटता है, पार्टी के प्रति निष्ठा उतनी बड़ी समझी जाती है | चेक की बड़ी राशि की निष्ठा ने पत्नी के प्रति छोटी निष्ठा को धराशाही कर दिया होगा |
सरकार को इस प्रेमपुजारी, शहीद नेता की याद में डाक टिकट जारी करना चाहिए, उसकी पत्नी के लिए हर पार्टी अपने द्वार खुले रखे, वो चाहे तो किसी पार्टी का दामन थाम सकती है या चाहे तो निर्दलीय चुनाव लड़ सकती है, क्यूंकि भारतीय लोकतंत्र में उसकी जीत हर हाल में तय है ।
सोमवार, 21 अक्तूबर 2013
खोदो न उन्नाव का यह गाँव बन्धु !
खोदो न महानुभाव यह गाँव बन्धु !
खोदो न महानुभाव यह गाँव बन्धु !
जेवर में सजता है, ईंटों में रहता है
झेलता है सबकी कांव - कांव बन्धु !
खोदो न महानुभाव यह गाँव बन्धु ! [मास्टरनी ]
बुधवार, 16 अक्तूबर 2013
व्यंग्य कथा ……. साहित्य और समाज
डिस्क्लेमर……. इस कथा को किसी यादव और किसी कुमारी से जोड़कर ना देखा जाए ।
सवाल सिर्फ सिद्धांतों का है ।
शुक्रवार, 13 सितंबर 2013
नहीं जज साहब नहीं …।
शनिवार, 31 अगस्त 2013
बाबा का साक्षात्कार …. सिर्फ इस चैनल पर
बाबा जी ....आप लोगों की सांसारिक शब्दावली हमारे पल्ले नहीं पड़ती | आप लोग जिसे शोषण कहते हैं हमारे यहाँ उसी को पोषण कहा जाता है | और दुष्कर्म हम नहीं करते | हम तो बस कर्म करते हैं, जिसके आगे आप लोग दुर्भावना से ग्रसित होकर के दुष लगा देते हैं वैसे ये सब हमारे दुश्मनों का कर्म है हमें फंसाने केलिए |
प्रश्न .....बाबाजी आप गिरफ्तारी से बचने के लिए भागे - भागे क्यूँ फिर रहे हैं ?
बाबाजी .... मुर्ख प्राणी ! हम क्यूँ भागेंगे ? भागता तो आम इंसान है | हम बहुत पहुंचे हुए बाबा हैं | हम लोग अंतर्ध्यान हुआ करते हैं | जब मन करता है प्रकट हो जाते हैं |
प्रश्न ..... आपके आश्रम से अक्सर लड़के और लड़कियों के साथ दुर्व्यवहार की ख़बरें आटी रहती हैं | ऐसा क्यूँ है ?
बाबाजी .....आप इस तरह से देखिये हमारे आश्रम में लिंग के आधार पर भेद नहीं किया जाता | आज जब सारा भारत लिंग - भेद जैसी समस्या से जूझ रहा है , ऐसे में हम ही हैं जिसके आश्रम में दोनों के साथ सामान रूप से शोषण .....माफ़ करना पोषण किया जाता है |
प्रश्न .....बाबाजी आपका कहना है कि वह लडकी मानसिक रूप से कमज़ोर है | इसमें कितनी सच्चाई है ?
बाबाजी ......जी, इस बात में बिलकुल सच्चाई है | हम दो तरह की महिलाओं का इलाज करते हैं ...एक वे जो मानसिक रूप से बीमार होती हैं, दूसरी वे जो मानसिक रूप से ठीक होती हैं | जो महिलाएं मानसिक रूप से कमज़ोर होती हैं वे हमारे इलाज से ठीक हो जाती हैं | ठीक होने वाली कभी मुंह नहीं खोलती | यही इस देश की महान परम्परा है | और जो मानसिक रूप से स्वस्थ होती हैं, हमारे इलाज के बाद मानसिक रूप से कमज़ोर हो जाती हैं | वे इस लायक ही नहीं रहती कि अपना मुंह खोल सकें | इस बार का केस गलत ले लिया | यह लडकी न पूरी तौर से बीमार थी और न ही स्वस्थ | इसी वजह से इतनी गफलत हो गयी |
प्रश्न ......तो आप इस बलात्कार के इलज़ाम को कुबूल करते हैं ?
बाबाजी .......आप लोग अभी खुद ही कॉन्फिडेंट नहीं हैं | कभी दुष्कर्म कहते हैं कभी बलात्कार | पहले ठीक से निर्णय लीजिये कि हमने क्या किया है तभी प्रश्न पूछिए |
प्रश्न .....बाबाजी ! निर्भया बलात्कार काण्ड के बाद आपने कहा था कि वह लडकी अगर उन बदमाशों को भैय्या बोल देती या राखी बाँध देती तो बलात्कार होता या नहीं, और आपने यह भी कहा था कि आपके पास ऐसा भी मन्त्र है जिसका जाप करने से बलात्कार जैसी घटनाएं होती ही नहीं | इस बारे में आपका क्या कहना है ?
बाबाजी ....एक बात तो इससे साफ़ हो जाती है कि मैं सदा से ही बलात्कार विरोधी रहा हूँ |
मैं तो उस रात भी बालिका को वही चमत्कारी मन्त्र देने ही गया था ताकि वह आने वाले समय में बलात्कारियों से अपनी रक्षा कर सके | सारा विश्व जानता है कि कि हम बाबा लोग अक्सर देह से विदेह हो जाया करते हैं | हमारी आत्मा अक्सर हमारे स्थूल शरीर से बाहर निकल कर सूक्ष्म संसार में विचरण करने चली जाया करती है | उस दिन भी ऐसा ही हुआ था | हमारी आत्मा हमारी देह से विलग होकर इस पापी संसार में भ्रमण कर रही थी | संसार में होने वाले पाप और अपराधों को नज़दीक से देखकर उनके समाधान पर हम आध्यात्मिक दृष्टि से विचार करते हैं | उस दिन हमारी सांसारिक देह ने जो किया उसके हम ज़िम्मेदार कैसे हो सकते हैं ? हम हमेशा अपने प्रवचनों में यही बात जोर देकर कहा करते हैं कि मनुष्य की सदा अंतरात्मा के दर्शन करने चाहिए | भौतिक देह तो मात्र छलावा है |
प्रश्न ....आपके सत्संग में महिलाओं की भारी संख्या रहती है, इसके क्या कारण हैं ?
बाबाजी .....बहुत सही प्रश्न किया आपने | मेरा मानना है कि ये महिलाएं ही हैं जो किसी भी आम इंसान को परमेश्वर बना देती हैं | जब ये अपने पतियों से रात - दिन डांट- फटकार खाकर भी उसे परमेश्वर या भगवान् का दर्ज़ा दे सकती हैं तो हमारे पास तो ऐसी बोली है, जिसे हमने सालों - साल की प्रक्टिस के बाद मीठा बनाया है |
प्रश्न .....तो आप मानते हैं कि महिलाएं सच्ची श्रद्धालु होती हैं ?
बाबाजी ....देखिये, हमारा यह भी मानना है कि ये महिलाएं ही हैं जो किसी भी बाबा के भगवान् बन जाने की राह में रोड़े अटकाती हैं | जैसे ही कोई बाबा देवत्व को हासिल करने वाला होता है वैसे ही उस पर यौन शोषण का इलज़ाम लगा देती हैं | इन नासमझ महिलाओं की वजह से ही भारत भूमि संतों से खाली होती जा रही है | अगर महिलाएं चुप रह जाती तो हर गली - मोहल्ले में इतने बाबा होते कि आप अनुमान नहीं लगा पाते कि कौन बाबा है और कौन इंसान | जिसे इंसान समझते वह बाबा निकल जाता और जिसे बाबा समझते वह इंसान की तरह व्यवहार करने लगता |
प्रश्न .......बाबाजी ! प्राचीन काल में बाबा लोगों को बहुत आदर के साथ देखा जाता था | उनके चमत्कारों पर बहुत चर्चाएँ हुआ करती थीं | चमत्कारों के आधार पर लोग बाबा को भगवान् का दर्ज़ा दे दिया करते थे | आजकल ऐसा बहुत कम सुनने में आता है । इसके पीछे क्या कारण हो सकता है ?
बाबाजी ..... सही कहते हैं आप | प्राचीन काल से ही हम बाबा लोग इलाज की बहुत सारी विधियां जानते थे | औरतों के बांझपन का शर्तिया इलाज हमारे पास हुआ करता था | औरतें इलाज करा - करा कर थक जाती थी, निराश हो जाया करती थीं , तब हमारे पास आती थीं | हम बंद कमरे में उन्हें ऐसा आशीर्वाद देते थे कि वे सफलतापूर्वक गर्भधारण करती थीं | उनकी सूनी गोद हरी हो जाया करती थी | फिर वे हमारा प्रचार - प्रसार करती थीं | हमारे पास ऐसी औरतों की भीड़ लग जाया करती थी | हम सबका इलाज बारी - बारी से करते थे | मजाल है कि किसी की गोद सूनी रह जाए | बाद में युवक पढने - लिखने लगे | पड़ने - लिखने वाला इंसान शक्की हो जाया करता है | इन्हीं शक्की युवकों के वजह से आज सिद्ध इन्फरटिलीटी स्पेशियलिस्ट बाबाओं के क्लीनिक समाप्ति की कगार पर हैं | आज महिलाएं अपने इलाज में लाखों रुपया फूंक देती हैं फिर भी माँ नहीं बन पातीं | इससे अंत में नुकसान महिलाओं का ही होता है |
प्रश्न ..... लोगों का यह मानना है कि संत लोग पूजनीय होते हैं, समाज के आदर्श पुरुष होते हैं | उनके प्रवचनों को दुनिया सुनती है |
बाबाजी .....मनुष्य की आँख पर अज्ञान का पर्दा पड़ा हुआ है | हम लोग जब भी प्रवचन देते हैं उसे ध्यान से सुनना चाहिए | हम सिर्फ यह कहते हैं कि '' दुनिया में बहुत पाप बढ़ गया है '' हमने कभी यह नहीं कहा कि हम इस पाप में शामिल नहीं हैं | हम आम आदमी को इस दलदल से निकालने का कार्य करते हैं | हम जब व्यभिचार और भ्रष्टाचार को हटाने की बात करते हैं तो वह आम आदमी के बारे में होता है, हमारे बारे में नहीं |
प्रश्न .......बाबाजी ! सुना है आप अपनी पिछली ज़िंदगी में शराब बेचते थे | इस बात में कितनी सच्चाई है ?
बाबाजी .....शराब कहकर आप हमारा अपमान कर रहे हैं | जिसे आम भाषा में शराब कहा जाता है, हमारी भाषा में उसे सोमरस कहा जाता है | हाँ, हम सोमरस बेचते थे | सोमरस बेचते - बेचते ही हमें ज़िंदगी के इस असली रस का बोध हुआ | हमने ये जाना कि ज़िंदगी का असली रस इसी धंधे से निचोड़ा जा सकता है |
प्रश्न .....मीडिया की भूमिका के बारे में आप क्या कहना चाहेंगे ?
बाबाजी ..... मीडिया से मुझे बहुत शिकायत है | इसे आज मेरे चरित्र प्रमाण पत्र की याद आई है, जबकि इस बाबागीरी के धंधे में चरित्र की नहीं बल्कि चर्चित होने की ज़रुरत होती है | आप कैसी भी नौकरी उठा कर देख लीजिये, हर जगह आपसे चरित्र प्रमाण पत्र की मांग की जाती है | एक यही नौकरी है जहाँ चरित्र पोल खुलने के बाद देखा जाता है |
प्रश्न .....क्या आपको लगता है कि अब आप गिरफ्तार हो जाएंगे ?
बाबाजी ......हमें कौन गिरफ्तार कर सकता है भला ? वह अलग बात है कि हम खुद गिरफ्तार हो जाएंगे | हम चाहते हैं कि लोग हमें आम इंसान समझें | हम अपनी शक्तियां आपातकाल के लिए सुरक्षित रखते हैं | आपको याद होगा हमारे मन्त्रों के जाप से हैलीकॉप्टर गिर जाने के बाद भी हमारे भक्तों को खरोंच तक नहीं आई थी, जबकि हैलीकॉप्टर टुकड़े - टुकड़े हो गया था | ऐसी अद्भुद मन्त्र शक्ति है हमारे पास | हमारा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता | हम जब जेल से उकता जाएंगे, बाहर आ जाएँगे |
प्रश्न ...... आप लोगों की नज़रों में नायक से खलनायक हो गए | देश भर में आपका विरोध बढ़ता जा रहा है |
बाबाजी ......पहले आप ये बताइए कि लोगों का विरोध किस बात पर है ? लोग चाहते क्या हैं ? वे स्वयं ही निश्चय नहीं कर पा रहे हैं कि विरोध किस बात पर करना है ? किसी भी स्त्री के बलात्कार पर ? नाबालिग के बलात्कार पर या एक बाबा द्वारा बलात्कार किये जाने पर ? वे कह रहे हैं कि एक संत को ऐसा काम शोभा नहीं देता, यह काम तो उन्हें शोभा देता । ऐसे लोगों के विरोध को मैं सीरियसली नहीं लेता ।
इतना कहकर बाबा अंतर्ध्यान हो गए ।
बुधवार, 28 अगस्त 2013
बता फिर … क्यूँ न हो उसका बलात्कार ? क्यूँ न हो उसकी इज्ज़त तार - तार ?
वह आकाश में उडती है । पानी में तैरती है | उसने पर्वतों पर जीत की पताकाएँ फहराईं हैं ।
उसका भी होगा बलात्कार ....
उसके हाथों में स्कूटर, मोटरसाइकिल, जहाज और कार है | ऊँचे से ऊँची नौकरी, बड़े से बड़ा व्यापार है | बैंक बैलेंस तगड़ा है, घर है कोठी है, बँगला है । पुरुष के वह कंधे से कन्धा मिलाती है । उसका सहारा लेकर उससे भी आगे बढ़ जाती है । हर बड़े पद पर उसकी सूरत दिख जाती है । रात - दिन जी तोड़ काम करती है । मेहनत को उसकी सारी दुनिया सलाम करती है ।
उसने अकेले बच्चों को पाला । माँ - बाप, भाई - बहिन को सम्भाला | सास - ससुर को मान दिया । रिश्तेदारों को सम्मान दिया । सबके सुख - दुःख में काम आती है । सारे रिश्ते, सारे नाते अकेले निभा ले जाती है । अब उसका भी अपना एक नाम है । कहीं - कहीं तो पत्नी का नाम ही पति की पहिचान है ।
वह इतनी मगरूर है । पिट जाने पर भी बोलती ज़रूर है | उसके मुंह पर जुबां आ गयी है । समझने और सोचने की अक्ल आ गयी है | खुद पर उठते हाथों को रोक लेती है | गलत हो कोई तो भरी सभा में टोक देती है | अधिकार की बात करती है | काम के बदले पगार की बात करती है । हर बात पर तर्क करती है । अच्छे - बुरे पर खुद फर्क करती है ।
वह लजाती, शर्माती, सकुचाती नहीं है | चूहे, कॉकरोच, छिपकली से भय खाती नहीं है | खाट की तरह अब बिछती नहीं है । दबी, कुचली, डरी, सहमी दिखती नहीं है | अपने शरीर पर अपना हक़ मांगती है । गंदी से गंदी नज़र को झेलती है । तेज़ाब से जब जल जाती है, शक्लो - ओ - सूरत तक गल जाती है, फिर भी जुल्मो - सितम की दास्ताँ दुनिया को बतलाने बाहर निकल जाती है ।
पढ़ाई को शादी पर अब कुर्बान नहीं करती । नौकरी की कीमत पर समझौता नहीं करती । ना आए पसंद तो रिश्ता वापिस कर देती है | दहेज़ नहीं मिलेगा, पहिले ही साफ़ कर देती है । भरे मंडप से बारात को लौटा देती है । लोभियों को हथकड़ी पहना देती है । पैर किसी के अब पड़ती नहीं है । उठाकर सिर, बना कर राह अपनी, शान से निकल पड़ती है ।
उसे समाज का डर नहीं रहा । अलगाव का भय नहीं रहा | अपने दम पर घर चलाती है । लेना हो तलाक ज़रा सा भी हिचकिचाती नहीं है । घुट - घुट कर जीना किसी हाल भी अब चाहती नहीं है । लोगों की नज़रों से लड़ना उसको आ गया । कितने भी कठिन हों ज़िंदगी के सवाल, अकेले हल करना आ गया ।
बता फिर … क्यूँ न हो उसका बलात्कार ? क्यूँ न हो उसकी इज्ज़त तार - तार ?
सोमवार, 26 अगस्त 2013
प्यार को प्याज मत बनाओ, प्याज को प्यार मत बनाओ….
चलिए देखते हैं कि ऐसी नौबत क्यूँ आई ? इसका एक ही कारण हो सकता है । पहले हम प्याज के साथ मज़ाक करते हैं । उसे सब्जी में, दाल में, पुलाव में, सलाद में, सिरके में, शराब में, जहाँ चाहा वहां डाल कर खाते हैं । कच्चा खाते हैं , पका कर खाते हैं । ऐसे ही खाते - खाते जब हम प्याज के आदी हो जाते हैं तब वह अचानक अपने भाव बढाकर हमारे साथ मज़ाक करने लगता है । हम कुछ नहीं कर पाते तो सोशल साइट्स पर प्याज को लेकर मज़ाक करने लगते हैं । इस प्रकार प्याज और हमारा हंसी - मज़ाक का क्रम निरंतर बना रहता है ।
इस दौरान और सब्जियां भी महंगी हुईं, लेकिन प्याज़ की लोकप्रियता को स्पर्श भी नहीं कर पाईं । गोभी, बीन, यहाँ तक कि थाली का बैंगन तक थाली से गायब हो गया लेकिन किसी को एहसास तक नहीं हुआ । कारण यही रहा कि इन सब्जियों को किसी गाने में फिट करने की सुविधा नहीं रही ।
प्याज भाग्यशाली है इस मायने में कि, जब तक दुनिया में प्यार के गाने बनते रहेंगे, तब तक प्याज की लोकप्रियता बनी रहेगी ।
ना प्यार कभी प्याज में बदल सकता है न प्याज कभी प्यार बन सकता है ।
सोमवार, 19 अगस्त 2013
कौन है असली स्टंटमैन ?
देशवासी अगर गंभीरता से सोचें तो पाएंगे कि ये युवा हैं और युवा का उल्टा वायु होता है । वे युवा हैं सो वायु हैं । वायु अमूर्त होती है । किसी को दिखती नहीं । वायु हल्की -हल्की बहेगी तो किसी को एहसास तक नहीं होगा । युवा दुनिया को अपने होने का एहसास करवाना चाहते हैं । जब वायु तेज़ गति से बहती है, सब सावधान रहते हैं । युवा सबको सावधान रखने का कार्य करते हैं । जब कोई युवा तेजी से बाइक चला कर बगल से गुज़रता है, किसी को नहीं दिखता । उसका एहसास भर होता है । सर्रर्रर की आवाज़ आने पर कई लोग आसमान में देखने लगते हैं कि शायद कोई हेलिकॉप्टर सर के ऊपर तेज़ी से गुज़र गया होगा । आज अगर यक्ष होते और युधिष्ठिर से प्रश्न पूछते '' वायु से तेज़ कौन चलता है ? '' तब युधिष्ठिर का जवाब होता '' बाइकर, ये वायु से तेज़ चलते हैं '' ।
युवा आपको एहसास करवाते हैं कि आप सड़क पर चल रही चींटी से ज्यादा कुछ नहीं हैं । इस प्रकार ये आपको महान होने के एहसास से दूर रखने में सहायता प्रदान करते हैं । मनुष्य होने का घमंड आपको छू भी नहीं पाता । भले ही धार्मिक चैनल वाले बाबा कितना चीख - चीख कर आपसे कहें '' मानव योनि बड़े ही भाग्य से मिलती है'', या ''मनुष्य परमात्मा की सर्वोत्तम कृति है '' यकीन मानिए आप इन बाइकर्स के आगे बड़ा ही तुच्छ महसूस करते हैं । बाबा लोगों को सड़क पर नहीं चलना पड़ता इसीलिये वे मानव होने पर गर्व महसूस कर सकते हैं ।
बाइकर्स की वजह से हमारे बड़े - बुजुर्गों की सेहत ठीक रहती है । ये घर में चाहे कितना भी बहाने क्यूँ न बनाएं मसलन, ' आँख नहीं दिखता '' या कान से नहीं सुनाई देता ''बुढापा आ गया है, चलने में तकलीफ होती है'', एक बार सड़क पर आते ही उनके सारे बहाने छूमंतर हो जाते हैं । आँख, कान, घुटने सब दुरुस्त हो जाते हैं । बाइक और बाइकर्स का डर दिन पर दिन क्षीण होती जा रही इन्द्रियों को दुरुस्त कर बुढापे को दूर करने में सहायता प्रदान करता है ।
इन बाइकर्स की वजह से ही छोटे - छोटे बच्चे बचपन से ही सड़क में सावधानी से चलना सीख जाते हैं । दाएं और बाएँ कैसे चलना है, इन्हें सिखाना नहीं पड़ता । बाइकर्स का कोई भरोसा नहीं होता । ये किसी भी दिशा में चलने के लिए स्वतंत्र होते हैं । यही कारण है कि हमारे बच्चे छठे साल से ही अपनी छठी इन्द्री का इस्तेमाल करना सीख जाते हैं । भय के कारण घंटों तक सड़क पार नहीं कर पाने के कारण इंसान को धैर्य का अच्छा अभ्यास हो जाता है । जिस तरह क्रिकेट के मैदान में बेट्समैन पहले से अपनी बल्लेबाजी डिसाइड नहीं कर सकता बल्कि बौलर के बॉल फेंकने के अंदाज़ से वह बॉल की दिशा का अनुमान लगाकर बल्लेबाजी करता है, उसी प्रकार इन बाइकर्स के एक किलोमीटर दूर से आने के अंदाज़ से यह डिसाइड करना पड़ता है कि किस दिशा की दीवार से जाकर चिपका जाए और अपने प्राणों की रक्षा करी जाए ।
एक हमारा बचपन था, जब वाहनों की रेलम पेल नहीं होती थी । हम सारी सड़क अपनी जागीर समझ कर चलते थे । सारी दिशाएं अपनी मुट्ठी में कैद रहा करती थीं । बाइक बड़े - बड़े शहरों में इक्का - दुक्का लोगों के पास हुआ करती थी । बाइक चलाने वालों को लफंगा, आवारा और बदमाश समझा जाता था । बाइक वालों को लोग लडकी देने से डरते थे । शरीफ लोग स्कूटर चलाते थे । माँ - बाप खुशी - खुशी अपनी लडकी का हाथ स्कूटर चलने वाले के हाथों में दे देते थे । ट्रैफिक के नियम किताबों में ही धूल फांकते रहते थे । यही कारण है कि रिक्शे वाले को दायाँ और बायाँ बताने में अभी भी मुझे कन्फ्यूज़न होता है । मेरी बेटी ने दस साल की उम्र से ही दिशाओं का ज्ञान कर लिया है और सड़क में सावधानी से चलना सीख लिया है, कई बार तो वह मेरा हाथ पकड़ कर किनारे कर देती है कि ''ठीक से चलो मम्मा, अभी कोई बाइक वाला टक्कर मार जाएगा '' ।
बाइकर निडर होते हैं । उन्हें मौत से डर नहीं लगता । उनकी रफ़्तार देखकर आम आदमी का कलेजा मुंह को आ जाता है । आम आदमी सड़क पर चलते हुए हमेशा सावधान की मुद्रा में रहता है । फर्क बस इतना है कि इस '' सावधान ' के बाद ' विश्राम' नहीं आता ।
लड़के कहते हैं '' जब बड़े परदे पर अजय देवगन बाइक पर सवार होकर स्टंट दिखाता है तो वह रातों - रात सुपरहिट हो जाता है । आँख बंद करके बाइक चलने वाले का नाम गिनीज़ बुक में दर्ज हो जाता है । छब्बीस जनवरी की परेड पर एक के ऊपर एक पिरामिड की तरह बने हुए जवानों को देश भर की तालियाँ मिलती हैं, और हम सामान्य लोगों को सड़कों पर स्टंट दिखाते हैं तो लोगों गालियाँ और पुलिस वालों की गोलियां मिलती हैं ? आँख बंद करके बाइक चलाने वाले को विदेशी यूनिवर्सिटी वाले डॉक्टरेट से नवाजते हैं, इनामों से लाद देते हैं, और हमें क्या मिलता है ? लोगों का तिरस्कार, अपमान और धिक्कार ।
सवाल …… फिर क्या कारण है कि बाइक में बैठकर तुम लोग स्टंट मैन बन जाते हो ?
जवाब …… गद्दी चीज़ ही ऐसी है कि इसमें बैठते ही हमें स्टंट करना और नेताओं को भ्रष्टाचार करना अपने आप आ जाता है ।
बुधवार, 7 अगस्त 2013
पावर्टी वर्सेस पाव - रोटी ….
यू सी.…
वी आर वैरी काइंड
वी आर नॉट ब्लाइंड
देयरफोर वी केन से टुडे
विद फुल कॉन्फिडेंस
पाव - रोटी ऑर पावर्टी
बोथ आर अ
स्टेट ऑफ माइंड,
लिसन पुअर, लिसन बैगर
विद साल्ट एंड पेप्पर
प्रिपेयर भेजा फ्राई
एंड फ्रॉम टुडे
नो फ़रदर क्राय.........
शनिवार, 27 जुलाई 2013
आओ मिड डे मील बनाएँ……
सब्जियों के सब्ज़ बाग़ में चलें …
मिड डे मील की सब्जी खरीदने का सर्वाधिक उपयुक्त समय तब होता है जब अँधेरा अपने पैर पसार चुका हो और सब्जी के ठेले वाला अपनी बची - खुची सब्जियां जानवरों के आगे डाल रहा हो | जानवर सूंघ कर आगे बढ़ जा रहे हों | सब्जियां वृद्ध होकर मुरझा के अपना रंग - रूप छोड़ चुकी हों, उनमें कीड़े पड़ चुके हों | यही सुनहरा मौका है, आप तुरंत अपना थैला उसके आगे खोल दें | बिना बहस किये वह दो - पांच रूपये में अपना ठेला आपके झोले में डाल देगा | आप अगर पैसे ना भी दें तब भी वह कुछ नहीं कहेगा | थैले की कराह पर बिलकुल ध्यान न दें | ध्यान रखें …ये गरीब के बच्चे हैं जिनके घर कई - कई दिनों तक सब्जी नहीं बनती है |
मसालों के मसले यूँ सुलझाएँ …
मसाले खरीदने आप दिन के उजाले में जाएं | इस कार्य के लिए रात का समय मुफीद नहीं है | रात के समय आप ठगे जा सकते हैं | दुकानदार आपके कपड़ों से आपको इज्ज़तदार आदमी मानते हुए असली मसाले भिड़ा सकता है | जबकि आप शहर के बिलकुल कोने में स्थित इस छोटी सी दूकान में इसीलिए जाते हैं क्यूंकि हल्दी, धनिया, मिर्च में मिलाए जाने वाले पीला रंग, लीद और ईंट के चूरे से भी आगे अगर कोई आविष्कार हो चुका हो तो वह सबसे पहले इसी दूकान में आता है |बच्चों को चूहा मानें और इन मिलावटी मसाले बनाने वालो को होनहार वैज्ञानिक | बच्चों को अगर कुछ नहीं हुआ तो दुकान वाला ये मसाले बाज़ार में सरलतापूर्वक उतार देगा और आपके गुण गाएगा, साथ ही साथ कमीशन भी देगा |
तेल के ताल में डुबकी लगाएँ……
बाज़ार में जिस दाम पर बोतलबंद पानी उपलब्ध नहीं हो, उससे भी कम दाम पर खुली बोतल में तेल खरीद कर लाएं और दिखा दें सरकार को कि वह कितनी भी होशियार क्यूँ न हो, उसके पास कितने ही विश्व विख्यात अर्थशास्त्री क्यूँ न हों , आपके अनर्थशास्त्र के आगे उनका अर्थशास्त्र कहीं नहीं ठहरता | भले ही तेल में से बदबू आए, बोतल में ज़हरीले कीटनाशक मिलें हों, आपका दिल बस एक ही बात जानता है कि ये बच्चे ऐसे घरों से आते हैं जहाँ इंसान को लक्कड़ हो या पत्थर, सब कुछ हज़म हो जाता है और कीटनाशकों को सूंघ कर, खाकर ही तो आज ये इतने बड़े हुए हैं | बच्चे शिकायत करें तो उनके ऊपर हंसने में देरी न करें, जी खोल कर खिल्ली उडाएं '' घर में तो पेट भर खाना मिलता नहीं, यहाँ मुफ्त का मिल रहा है तो इतने नखरे दिखा रहे हैं '' या '' पेट भर गए तो दिमाग खराब होने लगे इन लोगों के ''|
भोजन माताओं की भन्नाहट …
यूँ तो सरकार के नियम बहुत ही सख्त होते हैं | एक अत्यंत सख्त नियम के अनुसार बच्चों का खाना वही औरत बना सकती है जिसके खुद के बच्चे उस स्कूल में पढ़ते हों | जब इन माताओं को नियुक्ति पर रखें तब सारे नियम स्पष्ट कर दें | साल गुज़रते जाते हैं और जब इन भोजन माताओं के बच्चे स्कूल से पढ़ कर चले जाते हैं, इनको उसी सख्त नियम के अनुसार नोटिस थमा कर बाहर का दरवाज़ा दिखला दिया जाता है | तब ये स्कूल के आगे धरना - प्रदर्शन करने लग जाती हैं, गाँव वालों को अपने साथ मिला लेती हैं , भूख हड़ताल पर बैठ जाती हैं | इनकी ताकत से डर के आप इन्हें पुनः नियुक्ति दे देते हैं | आखिर आपको इनके गाँव में नौकरी भी तो करनी है | यहाँ पर संविधान का यह अलिखित नियम काम करता है कि सरकार जिसे अपनी शरण में एक बार लेती है फिर वह ज़िंदगी भर उसका शरणार्थी बना रहना पसंद करता है |
स्कूल के प्रधानाध्यापक और अध्यापक भोजन माताओं से गंभीरता से काम करने की अपेक्षा करते हैं जबकि वे अध्यापकों को देखकर कामचोरी और लापरवाही सीख रही होती हैं | उन्हें पता होता है कि जब सरकार इनका कुछ बिगाड़ नहीं पाती तो हमारा क्या बिगाड़ लेगी |
साहबों से सामना …
.स्कूलों में तभी झाँकने जाएं जब कोई बड़ी घटना या दुर्घटना हो जाए | घटना होने के बाद ताबड़तोड़ दौरे करें | स्कूलों की दशा और पढाई की दिशा पर आँख मूँद लें सिर्फ भोजन और भोजन पकने की जगह पर ध्यान केन्द्रित करें | ऊपर से ऐसा ही आदेश आया है | उपरवाला सदा से ही सर्वशक्तिमान रहा है | वह जानना चाहता है, पहिचानना चाहता है कि तीन रूपये छतीस पैसों में घोटाला करने की हिम्मत किसके अन्दर है ?
प्रश्नों के पिटारे …
साहब वही जो बस प्रश्न पूछे और उत्तर बिना सुने दूसरा और तीसरा प्रश्न पूछ डाले | चावल में कीड़े मिलें तो फटकारें '' चावल में कीड़े क्यूँ हैं ?'' ये बात भूल जाएं कि चावल में कीड़े तो उसके घर में भी पड़े रहते हैं जिन्हें साफ़ करके ही बनाया जाता है | कीड़े नहीं मिलें तो कहें '' चावल में कीड़े क्यूँ नहीं हैं, अच्छे चावलों में कीड़े अवश्य पड़ते हैं, इसका मतलब ये चावल बेकार हैं…आप लोग इतना बेकार चावल खिलाते हैं बच्चों को '' | खाना खुले आसमान के नीचे और चूल्हे में पक रहा हो तो पूछें ''रसोई कहाँ है ? गैस कहाँ है'' ? अगर वे कहें कि सरकार ने रसोई बनवाने के लिए पैसा नहीं दिया, या तीन साल से कनेक्शन के लिए आवेदन दिया है... अभी तक गैस नहीं मिल सकी है....खाने का बजट छः - छः महीने में आता है … उधार लेकर खाना बनवाना पड़ता है '' | इस तरह की समस्याप्रधान बातों पर बिलकुल कान न दें | मछली की आँख पर निशाना बनाए रखे | समस्याएँ सुनना अफसर का काम नहीं है …अफसर, अफसर होता, और कभी - कभी नहीं वह अक्सर अफसर होता है |
प्रधानाचार्य का प्रसाद …
जिस समय मिड डे मील का चार्ज दिया जा रहा हो, इसको फ़ुटबाल बना दें |.हर हालत में चार्ज को दुश्मन अध्यापक के के पाले में फेंक कर ही दम लें | चार्ज देते समय उसे तरह - तरह का लालच दें | मसलन यूँ कहें '' बहुत फायदा है इसमें | अपने घर का राशन - पानी इसी से निकाल लेना और आने जाने का खर्च भी निकल जाएगा, आपको बहुत फायदा होगा और स्कूलों में मारामारी मची हुई है ...मिड डे मील का चार्ज लेने के लिए घूस खिलाई जा रही है और हम आपको मुफ्त में दे रहे हैं...इस प्रसाद को खुशी - खुशी ग्रहण कीजिये ''| अगर वह ज़रा भी इनकार करे तो उसे सी . आर. खराब करने की धमकी दें | सदियों से सरकारी आदमी, सरकार से नहीं बल्कि सी. आर .से डरता आया है | एकदम काम बन जाएगा |
मास्टरों की मटरगश्ती ....
दुर्घटना के बाद यह फरमान आता है कि अब से मिड डे मील का भोजन बच्चों को खिलाने से पहले अध्यापक चखेंगे | अगर ऐसा प्रावधान योजना की शुरुआत से ही कर दिया जाता तो कभी ऐसी दुर्घटना नहीं होती | अध्यापकों को कभी भी बच्चों का मिड डे मील चखने से परहेज़ नहीं रहा | बल्कि वे तो सबसे पहले यह काम करना चाहते हैं | इसमें खतरा इस बात का उत्पन्न हो जाता है कि अक्सर अध्यापक चखने - चखने में ही इतना खा जाते हैं कि बच्चों को खाना सिर्फ चखने को ही मिल पाता है | इसके अतिरिक्त समाज में ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जो अध्यापक को मिड डे मील खाता देखकर कंजूस, मक्खीचूस तो कहते ही हैं साथ ही यह कहने से भी परहेज़ नहीं करते कि '' इतनी तनखा मिलती है इनको और देखो बच्चों का खाना भी खा जा रहे हैं, हद है बेशर्मी की ''|
सरकार की असरकारी नीति ……
लोग कहते हैं कि अध्यापकों को सरकार ने भांति -भांति की योजनाओं में उलझा रखा है, जिस कारण बच्चों की पढाई प्रभावित होती है | सरकार जानती है कि अगर अध्यापकों से शिक्षा के अतिरिक्त काम न लिए जाएं तब भी उन्होंने पढ़ाना तो है नहीं | ऐसी परिस्थिति में भोजन पकाने के बहाने कम से कम स्कूल तो खुल ही जाता है | किसी - किसी जगह तो वाकई स्कूल भोजन बनाकर बच्चों को खिलाने के बाद बंद हो जाता है | पढ़ाई के लिए तो खुद माँ- बाप ही उन्हें नहीं भेजते | वे चाहते हैं पेट भर भात खाके बच्चा कम से कम शारीरिक श्रम करने लायक हो जाएं | लड़के फ़ौज या पुलिस में भरती हो जाएँगे कुछ न हुआ तो कम से कम मजदूरी करके ही खा लेंगे और लडकियां जल्दी - जल्दी शादी करके बच्चे पैदा करने लायक हो जाएंगी |
आयरन देखकर रन करते बच्चे .....
आयरन की गोलियां स्कूलों में बांटी जा चुकी हैं | बच्चों ने अध्यापक की नज़र फिरते ही सारी गोलियां खिड़की से बाहर फेंक दी हैं | बच्चे धीरे - धीरे समझदार होते जा रहे हैं | सरकारी योजनाएं भोले - भाले बच्चों को चतुर - चालाक बनाने में सहायक सिद्ध होती जा रही हैं | ''पर्सनेलिटी डिवेलपमेंट'' का कोर्स मुफ्त में हो रहा है | ऐसी दो - चार योजनाएं और आ जाएँ तो मेरा दृढ़ विश्वास है कि बच्चों का मानसिक विकास बिना आयरन और हीमोग्लोबिन लिए ही हो जाएगा |
टी वी पर टसुए बहाने वाले …
टी. वी. पर मिड डे मील की दुर्दशा पर आंसू बहाने वाले इस योजना को बंद करने के लिए ऐढ़ी - चोटी का जोर लगा दें | उन्हें बहुत दुःख पहुँचता है जब कहीं ऐसी दुर्घटना हो जाती है | उनसे ऐसे दृश्य देखे नहीं जाते | वे इस बात को अपने ज़हन में न आने दें कि भारतवर्ष में आज भी कई बच्चे दिन में सिर्फ एक बार स्कूल में खाना खाकर ही अपना पेट भर पाते हैं | रात को भूखे रहकर अगले दिन स्कूल जाने का इंतज़ार करते हैं और अक्सर इतवार को भूखे पेट ही सो जाते हैं | इन टी. वी देखने वालों और दर्दनाक तस्वीरें देखकर दुःख प्रकट करने वालों के मन में भयंकर आक्रोश है इसलिए ऐसी योजनाएं तत्काल प्रभाव से बंद हो जानी चाहिए | इन स्कूलों में उनके बच्चे नहीं पढ़ते सो उन्हें इसकी चिंता करने की ज़रुरत नहीं है | सोचने को तो यह भी सोचा जा सकता है कि गरीब लोग गरीबी का दिखावा करते हैं, दरअसल ये उतने गरीब होते नहीं जितने दिखते हैं | जिसके लिए इतनी सारी योजनाएं बन रही हों वह इतना गरीब कैसे हो सकता है कि अपने बच्चों को खाना तक न खिला सके |
केदारनाथ में भगवान् के मंदिर के सामने इतनी बड़ी दुर्घटना हो गयी, हजारों मर गए, कई लापता हो गए | पूजा - पाठ बंद करने की ख़बरें कहीं से भी नहीं आई | मंदिर के पुनरुद्धार के लिए सारे दल पुनः कृत संकल्प हैं |