रविवार, 29 जनवरी 2012

सारे तीज - त्यौहार एक तरफ, लोकतंत्र का त्यौहार एक तरफ ....

आहाहा ...कैसी अनुपम छटा है | अभूतपूर्व रौनक है | सारे तीज - त्यौहार एक तरफ, लोकतंत्र का त्यौहार एक तरफ | 
 
अभी कल ही की तो बात थी जब धड़ाधड़ करके जब सरकारी घोषणाएं होने लगी थीं, विधायक निधि आनन् - फानन खर्च होने लगी थी, टिकट के दावेदारों का दिल्ली आवागमन बढने लग गया था, कईयों ने हाईकमान के आँगन में ही डेरा जमा लिया था | हाईकमान किस - किस को टिकट दे? जिसको कार्यकर्ता समझते, वही उम्मीदवार निकल जाता | 

फिर एक दिन अचानक खबर आई कि कुछ लोग बागी हो गए, पता चल कि उन्हें टिकट नहीं मिला |  उन्होंने जनता को बताया कि पार्टी की नीतियां जनविरोधी होने के कारण उन्होंने पार्टी को छोड़ दिया है |  टिकट बंटवारे से पहले वे पार्टी को जनता का सच्चा हितैषी बताते नहीं थकते थे | असल बात यह थी कि लाखों रुपया पानी की तरह बहाए जाने के बावजूद हाईकमान ने उन्हें नज़रंदाज़ कर दिया | उनकी जगह किसी अजनबी को टिकट थमा दिया गया, वह  भी जनता  की राय  पर |  अब बताइए ये जनता कौन होती है राय देने वाली ? सो वे बागी होकर निर्दलीय हो गए | हाईकमान ने सदा की तरह पहले उनके बागी होने का इंतज़ार किया फिर उन्हें पार्टी विरोधी गतिविधियों में शामिल होने के कारण निष्कासित कर दिया | कुछ बागियों को लाल बत्ती का लालच देकर मना लिया गया |

उस एक दिन अखबार में हमने पढ़ा कि यही बागी पार्टियों के लिए संकट बन गए हैं, या सिरदर्द साबित हो रहे हैं |  सब जानते हैं  कि असली संकट तो बागियों के सामने होता है | चुनाव के सारे इंतजाम उन्हें स्वयं ही  करने पड़ते हैं | नोट से लेकर दारु तक | चुनाव चिन्ह से लेकर | समर्थकों का हुज़ूम इकठ्ठा करने में क्या क्या पापड बेलने पड़ते हैं वे पार्टी के झंडे तले लड़ रहे प्रत्याशी क्या जानें  ? | असली  संकट उनके सामने होता है कि उन्हें  हाईकमान को हर हाल में जतलाना होता है  कि उसके पास टिकट मिलने वाले से ज्यादा समर्थक हैं और हाईकमान ने उनका टिकट काटकर बहुत भारी गलती की है | शहर के सारे रिक्शे वालों, ठेले वालों, आस पड़ोस के बच्चों को जमा करना कोई हँसी खेल नहीं | सबके लिए खाना पीना चाय नाश्ता की व्यवस्था करना कोई आसान बात नहीं होता  | उन्हें जनता को यह बतानाहोता है कि उन्हें सत्ता का लालच नहीं है बल्कि वे तो समाज सेवा के लिए टिकट मांग  रहे थे और हाईकमान ने उन्हें अनदेखा कर दिया | समाजसेवा किसी टिकट की मोहताज़ नहीं | अब वे स्वयं लड़ेंगे |
 
फिर एक दिन अचानक शहर सुनसान हो गया | बड़े - बड़े चेहरों से पटा हुआ शहर मानो तेज़ आंधी - तूफ़ान के आने के कारण उजड़ सा गया हो | कद्दावर लोगों के पोस्टर ज़मींदोज़ हो गए | हमारे गाँव की गलियां गुलज़ार होने लगीं |शहरों से उखड़े हुए पोस्टर  गाँव के खम्बों और दीवारों पर चिपक गए | चुनाव आयोग की गाड़ियां गाँव देहात तक जाने की आवश्यकता नहीं समझतीं | अधिकारियों की रातों की नींद हराम होने लगी |  गाड़ियाँ छिनने और पैदल हो जाने का डर भ्रष्टाचार की तरह सर्वत्र व्याप्त हो गया | कर्मचारियों को ड्यूटी की आशंका से चैन उड़ गया | उस दिन से प्रदेश में अचार संहिता लग गई जिसका अर्थ यह हुआ कि आज के बाद से ना कोई अचार रहेगा ना किसी संहिता का पालन किया जाएगा  |

और उनका क्या कहना ?टिकट हासिल करने की होड़ में उन्होंने सबको पछाड़ दिया | टिकट वितरण के एक दिन पहिले दल बदलने के कारण पार्टी को उनके अन्दर बहुत संभावनाएं नज़र आईं |  उस एक दिन उनके जिस्म से जींस निकल कर साड़ी विराजमान हो गई | सिर से पल्लू था कि खिसकने की नाम ही नहीं ले रहा था | कितनी ही जोर की हवा चले या ठण्ड पड़े, वह अपनी जगह से टस  से मस नहीं हुआ | इस पूरा महीना उन्होंने बिना जींस - टॉप पहिने गुज़ार दिया | ये उनके लिए कठिन संघर्ष के दिन थे | जिस जींस को उन्होंने घर के बुजुर्गों के लाख टोकने पर भी विवाह के दूसरे ही दिन से पहिनना शुरू कर दिया था उसे आज दिल पर पत्थर रख कर बक्से में सबसे नीचे दफ़न कर दिया | राजनीति ने संस्कारों को पुनर्जीवित कर दिया |

गली मोहल्ले की खाली पड़ी दुकानों में चुनावी दफ्तर खुल गए | जिनमे  चंद प्रचारकनुमा लोगों के द्वारा वोटों के प्रतिशत और जातियों  के गणित के उलझे हुए समीकरणों को चाय की चुस्कियों के साथ हल किया जाने लगा | 

 एक दिन कुछ लोग लाउडस्पीकर ले लेकर सड़कों में घूमने लगे | उन्होंने हमें चीख -चीख कर बताया गया कि हम सब पिछले पाँच सालों से लगातार ठगे जा रहे हैं | हमें बेवकूफ बनाया जा रहा है | विकास कार्य ठप पड़ा है | हम बर्बादी  की कगार पर खड़े  हैं | वे हमारे सच्चे हितैषी की तरह प्राण - प्रण से हमें बचाने में  लगे हैं और हम हैं कि गुमराह पे गुमराह हुए जा रहे हैं |

अचानक हमें  जगह - जगह गन्दगी के ढेर दिखाई देने लगे, वही ढेर जिनको बनाने में हमारा योगदान कुछ कम नहीं था |  हम रात के अँधेरे में कूड़े को पोलीथीन में भर कर सड़क के किनारे डाल आते और दिन के उजाले में वहाँ से नाक बंद करके सरकार को कोसते हुए गुज़रते | बत्ती  के जाने का एहसास बहुत शिद्दत से होने लगा | दस मिनट बत्ती का जाना भी दस घंटों के बराबर लगने लगा  | अचानक लगने लगा है कि नल  में पानी भी नहीं है | हांलांकि हमें पता था कि पानी आने का समय निर्धारित है फिर भी यूँ लगा कि सर्वत्र सूखा पड़ा हुआ है | बिलकुल वैसे ही जैसे कि नई बहू के घर में आने के बाद ही बेटियों को इस बात का एहसास होता है की उनकी माँ कितनी सीधी है और उसके ऊपर बहू के द्वारा अत्याचार किया जा रहा है |

उन्होंने दलित बाहुल्य क्षेत्रों में बताया कि उनके विपक्षी उम्मीदवार दलित विरोधी हैं | मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्रों में उसी उम्मीदवार को  मुस्लिम विरोधी साबित किया  | वे जिस - जिस क्षेत्र में गए, अपने विपक्षी दल को उस - उस क्षेत्र का विरोधी बताया | अच्छा हुआ जनता सिर्फ़ सुनती है सवाल नहीं पूछती |

उस एक दिन उनका वोट मांगने का अभियान विकास से शुरू हुआ और जातिवाद पर ख़त्म हुआ | देश की भलाई की बात का एक दूसरे की छीछालेदर और व्यक्तिगत आक्षेप पर जाकर समापन हुआ | गरीबों के उत्थान की बातें पिछले चुनाव के दौरान किये गए वायदों के गढ़े मुर्दे उखाड़ने पर ख़त्म हुई | रोटी - कपडा और मकान के वायदे एक दूसरे के चुनाव निशान की धज्जियां उड़ाने पर जाकर समाप्त  हुए | उस दिन से हम अपने पड़ोसी को दूसरी नज़र से देखने लगे | आज वह अचानक हमारे लिए पहाडी - देसी,  गढ़वाली, कुमांउनी, ठाकुर, ब्राह्मन, लम्बी धोती, छोटी धोती में बदल गए | दिलों में एकाएक दूरियां पैदा हो गई | मोहल्ले  का टेलर अशरफ, जो सूट सिलकर घर में दे जाता है उसे कितना ही बुरा भला कह दो, कभी बुरा नहीं मानता था, आज हमें मुसलमान लगने लगा  |

फिर एक दिन गाड़ियाँ ज़ब्त होने लगीं, अधिकारी बेचारे बिना गाड़ियों के ऐसे उदास  हो गए जैसे बिना बिना उपरी कमाई के सरकारी कर्मचारी  | कर्मचारी और अधिकारी समवेत स्वर में प्रार्थना करने लगे कि पहाड़ों में पैदल चलने वाली ड्यूटी ना आ जाए | ऐसे ही एक स्वर में उन्होंने तब प्रार्थना करी थी जब संसद में लोकपाल बिल पेश रहा था | यह प्रार्थना ईश्वर द्वारा स्वीकार कर ली गई इसीलिये कहते हैं कि समवेत स्वर में की गई प्रार्थना में बहुत शक्ति होती  है  | नए  पुराने, अच्छे - बुरे अनुभव साझा होने लगे | पीठासीनों  ने डायरी रटनी शुरू कर दी | दारु का इंतजाम अभी से कर लिया , पता नहीं ऐन टाइम पर मिले ना मिले | कई कर्मचारियों के लिए मतदान किसी बारात से कम नहीं होता जहाँ बिना शराब पिए नाचा ही नहीं जाता |

क्या मंज़र है, मेरे देश की धरती बिना पैसा बोए बोए जगह - जगह नोट उगलने लगी | कहाँ से आया है कहाँ जाएगा कुछ पता नहीं | सब उपरवाले का उपरवाले के लिए | यूँ लगा कि भारत फिर से सोने की चिड़िया बन गया है | शराब  की नदियाँ बहने लगीं | चाय - पानी तो ज़िंदगी भर चलती  रहेगी लेकिन  मुफ्त  की दारू बार - बार  नहीं मिलेगी | सरकार है कि मतदाता को जागरूक करने पर तुली है शायद वह नहीं जानती कि आजकल का मतदाता बहुत जागरूक है उसे अच्छी तरह पता है कि भविष्य का कुछ पता नहीं, जो भी है बस यही एक पल है, अतः वह दोनों हाथों से इस पल को समेट लेना चाहती है | कुछ के लिए यह सौगात मौत का पैगाम लेकर आई | मुफ्त की दारु पीकर जो लुडके तो उठ ही नहीं पाए |

बाज़ार में काजू बादाम, बिस्कुट, नमकीन, मुर्गों, बकरों  के साथ साथ फूलों की मालाओं की बिक्री में अचानक उछाल आ गया | ऐसी मालाओं की बिक्री एकाएक बढ़ गई जिसमे सारे नेता एक साथ समा जाएं |  देखने वाले  समझ जाते हैं कि यही होता है एक थैली के चट्टे -बट्टे या यूँ कहा जाए कि एक माला में हट्टे - कट्टे  |

वातावरण अचानक कुछ कर्णप्रिय शब्दों से भर गया, जिनमें प्रमुख हैं -गरीबी, भ्रष्टाचार, सस्ता अनाज, शिक्षा, रोज़गार, उद्योग - धंधे, विकास कार्य, रोटी - कपडा - मकान, बिजली, पानी,सड़क मूलभूत समस्याएँ आदि | छोटे - छोटे लोग और उनकी  छोटी - छोटी समस्याएँ बड़े - बड़े लोगों के लिए अचानक से महत्वपूर्ण हो गईं | अन्ना हजारे ने अगर भ्रष्टाचार, तमाचा, लड़ाई जैसे शब्दों को छोड़कर इस तरह की शब्दावली अगर बचपन से कंठस्थ ली होती तो उनके बयानों को लेकर कभी हंगामा नहीं मचता | 
    
चुनाव में खड़े हुए उस अन्तर्यामी ने एक दिन हमें बताया कि उन्हें पता है जनता अब परिवर्तन चाहती है | वे अपनी जीत के प्रति आश्वस्त हैं | जनता उनके प्रति आश्वस्त है या नहीं ये जनता के बिना बताए वे जानते  हैं | जनता असमंजस में है लेकिन उन्हें कोई संशय नहीं | वे जनता से कहते हैं कि मैं आपका अपना उम्मीदवार हूँ | हांलांकि उन्होंने कभी जनता से अपने खड़े होने के विषय में राय नहीं ली | उनका बरसों पुराना चुनावी क्षेत्र परिसीमन की भेंट चढ़ गया | सो उन्हें  नए सिरे से मेहनत करनी पड़ी | एक नया घर उस क्षेत्र में बनवाना पड़ा | बहाने - बहाने से क्षेत्रवासियों को दावतें दी गईं | अब जनता की बारी है देखते हैं नमक का क़र्ज़ चुकाती है कि नहीं ?

वे कहते हैं कि हमें भारी मतों से विजयी बनाएं | उन्हें शायद पता नहीं कि लोग उन्हें बहुत हल्के में लेती है | उनके विषय में काफ़ी हल्की - हल्की बातें होती हैं | उन्हें पता नहीं कि हम तो मतदान को भी बहुत हल्के  में लेते हैं | जो उनकी ज़िंदगी, उनके कैरियर के लिए बहुत महत्वपूर्ण है, हमारे लिए ज़रा भी नहीं | हमारा मन हुआ तो वोट देने चले जाते हैं अन्यथा बच्चों के साथ घूमने चले जाते हैं या बिस्तर में घुस के नींद पूरी करते हैं | अगर आत्मा ज्यादा ही धिक्कारने लगे तो  तो मतदान के अंतिम चरण में बूथ में अपने दर्शन दे देते हैं, ठीक उसी समय जिस समय मतदान कर्मी सामान समेटने वाले होते हैं | उनके द्वारा लगे गए नारों से हमें  कभी - कभी भ्रम हो जाता है | '' हमारी जीत आपकी अपनी जीत है '' हम समझ नहीं पाते कि कैसे ? अगर ऐसा है तो क्या उनके द्वारा विगत वर्षों में एकत्र की गेई संपत्ति भी हमारी अपनी है ? फटी चप्पल, पैबंद लगी पेंट पहिनकर शहर में आने वाले का बीस साल के अन्दर करोडपति होने का सफ़र किसी की नज़र से छुपा हुआ नहीं है | अगर उनकी दौलत में हमारी हिस्सेदारी नहीं तो उनकी जीत हमारी कैसे हो गई ?

वे सदैव विकास की बातें करने वाले उम्मीदवार हैं | विकास अवरुद्ध होने के कारण बात - बात में उनका गला भी अवरुद्ध हो जाता है | कैमरा सामने होते ही आंसू छलक - छलक कर गिरने लगते हैं | पाषाण ह्रदय जनता हैं कि द्रवित होने का नाम ही नहीं लेती | शंकालु जनता इसे ड्रामा करार देती  हैं | 

एक गुनगुनी धूप वाले अति व्यस्त दिन हमने भाजपा की हेमा मालिनी को भी देखा | कुछ लोगों ने हो सकता है कि सुना भी हो | उसी दिन दोपहर राहुल गांधी का भाषण सुनने भी गए | मायावती की रैली में भी शरीक हुए | मोहल्ले के निर्दलीय के समर्थन में भीड़ जुटाई | टीम अन्ना का दम - ख़म देखा | अखिलेश यादव के दीदार किये | इस अति व्यस्त दिन  हमने चंद हमसे भी ज्यादा व्यस्त लोगों को देखा | कुछ सुना भी था जो लाख कोशिश करने पर भी याद नहीं आ रहा | हम और हमारे जैसे तमाशबीनों को  देखकर सारे दल गदगद हो गए और अपनी जीत के प्रति आश्वस्त हो गए |

एक गुनगुनाते दिन देशभक्ति के गानों से वातावरण गूंज उठा | जगह - जगह तिरंगे लहरते हुए नज़र आने लगे | लगा कि भारत माता फिर वीरों को पुकार रही है | घर के वृद्ध लोगों की बाज़ुएँ फड़कने लगीं, बुढ़ापे का रक्त जोर मारने लगा |  उन्हें भ्रम हुआ कि कहीं फिर युद्ध तो नहीं छिड़ गया | उस दिन बहुत दिक्कत हुई, वे समझने को तैयार ही नहीं हुए कि इन गानों का प्रयोग चुनाव लड़ने के लिए किया जा रहा है | ''मेरे देश की धरती'' पर ''ए मेरे वतन के लोगों'' भारी पड़ गया | जिसे सुनकर पड़ोस के बुजुर्ग स्वतंत्रता सेनानी , जो कागजों में दर्ज होने से रह गए, जिन्होंने इसका लाभ लेने से यह कहते हुए इनकार कर दिया कि मैंने  देश  के ऊपर  कोई एहसान थोड़े ही किया है, रो पड़े | नेहरु जी होते तो आज फिर रो पड़ते |  

प्रत्याशी निर्दलीय था जो मानो हमसे कह रहा हो '' जो शहीद हुए हैं उनकी ज़रा याद करो कुर्बानी '' वह कुर्बान हुआ हाईकमान के फैसले की बलिवेदी पर जिसे वह गलती कहता है  | हम जानते थे कि कौन कुर्बानी मांग रहा है और कौन कुर्बानी दे रहा है | जिसने टिकट के जुगाड़ में सफलता हासिल कर ली थी उसका लाउडस्पीकर '' मेरे देश की धरती सोना उगले'' बजा रहा था '' | हम समझ गए थे कि जीत  जाएगा तो यह क्या - क्या करेगा  |

एक लाउडस्पीकर आजादी की धुन बजा रहा था | उसे आज़ादी चाहिए निर्वाचन आयोग की सख्ती से | आजादी चाहिए  जी भर के दारु बहाने की | नोट के सहारे गद्दी हथियाने की | 

एक गाने की धुन थी '' आपस में प्रेम करो देशप्रेमियों'' | हमने उन्हें बताना चाहा कि हम तो आपस में रहते ही प्रेम से हैं,  ये तो वे हैं जो हमें कहते हैं '' अपनी जाति के प्रत्याशी का ख्याल रखिये ''| लेकिन गाने के शोर तले हमारी आवाज़ दब के रह गई |

और आज अचानक चुनाव प्रचार ख़त्म हो गया | लगता है जैसे समर्थकों के शरीर से रक्त निचोड़  लिया गया हो | तेज़ चाल मंद पड़ गई | कदम रुक गए | निरंतर चीखते - चिल्लाते गलों ने शुक्र मनाया | घरवालों ने कई रोज़ बाद चेहरे के दीदार किये और कई रोज़ बाद उनके लिए रात का खाना बना | कार्यकर्ता नाम के ये बेरोजगार फिर से पैदल हो गए | 

दुविधा में तो मैं भी हूँ | घर के सामने  एक ही खम्भा है जिस पर तीन प्रमुख प्रत्याशियों के पोस्टर लगे हुए हैं | तीनों चौबीसों घंटे जैसे हम पर नज़र रखे हुए हैं | जब भी बाहर नज़र जाती है, छः जोड़ी आँखें घूरती रहती हैं |

एक जो सबसे ऊपर लगा है वह क्षेत्र के लिए नया है और जिसका नारा है सोच नई संकल्प नया | आश्चर्य इस बात पर हुआ  कि उसने पोस्टर में अपनी पुरानी फोटो लगाई हुई है | कल जब सामने से उसे देखा तो कोई पहिचान ही नहीं पाया | बाल उड़े, चेहरे पर झुर्रियां, फूला हुआ शरीर | नया होते हुए भी उसने क्षेत्र के निवासियों का ध्यान रखा | बुद्धिमान आदमी है,  उसे पता था कि जो भी करना है आचार संहिता के लगने से बहुत पहले कर लो | उसके बांटे हुए कलेंडर से हमने सन् दो हज़ार नौ की छुट्टियाँ देखीं | डायरी में मित्रों के जन्मदिन लिखे | पैन का इस्तेमाल कक्षा में कॉपी जांचने के लिए किया | जब हम जानते  भी नहीं थे  वह तब  से क्षेत्र में सक्रिय  था | और ये लो... धूल और धुंए के गुबार के बीच उसका काफिला गुज़र गया | पच्चीस के बाद कारों की गिनती करना छोड़ दिया | हम देखते रह गए कि वह अब हाथ जोड़ेगा तब हाथ जोड़ेगा, लेकिन यह क्या ? वह हवा को हाथ जोड़ता हुआ निकल गया | ये नए ज़माने का नेता है जो जनता को नहीं सड़क को और हवा को हाथ जोड़ता है |

दो उम्मीदवारों ने अपने पोस्टर इस उम्मीद से लगवाए थे कि टिकट तो पक्के ही समझो, लेकिन अफ़सोस दोनों को ही टिकट मिल नहीं पाया | उनमे से एक ने हाथ भी नहीं जोड़ रखे हैं, मानो कह रहा हो जब टिकट मिलेगा तब हाथ जोडूंगा |

और देखते ही देखते  मतदान का दिन आ खड़ा हुआ है | मेरे सामने संकट की स्थिति है कि किसे अपना अमूल्य मत  दूँ | यह वास्तव में अमूल्य कहे जाने योग्य है क्यूंकि इसके लिए मुझे किसी ने मूल्य देना उचित नहीं समझा | पढ़ा - लिखा इंसान हर जगह मारा जाता है | मुझसे अच्छे तो मेरे गाँव वाले निकले, जिनके घर वोट के बदले लिफाफे, कम्बल और तमाम छापामारी के बावजूद बोतलों की पेटियां पहुँच गई | 

कुछ भी लिखूं , कुछ भी कहूं लेकिन आने वाले दिन मतदान अवश्य करूंगी क्यूंकि औरत और नेता दो ऐसे प्राणी हैं जिनका विश्लेषण करना और गालियाँ देना बहुत सरल होता है स्वयं बनना बहुत कठिन | 



 

         








17 टिप्‍पणियां:

  1. सत्ता के शीर्ष में पहुँचने का महोत्सव..

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  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति
    आपकी इस सुन्दर प्रविष्टि की चर्चा कल दिनांक 30-01-2012 को सोमवारीय चर्चामंच पर भी होगी। सूचनार्थ

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  3. अरे बाप रे ये क्या कुछ लिख दिया..आते हैं फुर्सत में पढ़ने फिर से.

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  4. अरे वाह. लगता है कि ये लेख भी पूरी प्रक्रिया के ही साथ-साथ लिखा गया है क़िश्तों में, पर शायद चुनाव परिणामों से पहले ही रिलीज़ कर दिया गया हे ☺. हमारी राजनीतिक व्यवस्था का सच तो यही है कि यहां हर कार्यकर्ता संभावित प्रत्याशी ही होता हे. अगर टिकट न मिले और बग़ावत का बूता भी न हो तो दल्लागिरी तो कहीं नहीं जाती. हमने हेमा मालिनी तो नहीं अलबत्ता रायबरेली में एक बार मेनका गांधी ज़रूर देखी थीं. ☺

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  5. वाह पूरे ताम झाम का जलूस निकाल दिया आपने तो । लोकतंतर की अलोकतांत्रिक प्रकिया की समझ एक आम आदमी को बराबर आ गई है । विस्तारपूर्वक धुलाई के लिए बधाई ।

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  6. बहुत बेहतरीन और प्रशंसनीय.......

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  7. थोड़ी देर से ही सही.... ! पहले तो आपको बसंत और बसंत- पंचमी की शुभकामनाएं.... ! आप बहुत अच्छा लिखीं हैं.... :) राजनीती , टिकट मिलने और न मिलने की मनोस्थिति और चुनाव प्रचार की नंगी तस्वीर प्रस्तुत करती रचना.... !! कभी http://vranishrivastava1.blogspot.com पर भी नजरें डालें.... :)

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  8. औरत और नेता दो ऐसे प्राणी हैं जिनका विश्लेषण करना और गालियाँ देना बहुत सरल होता है स्वयं बनना बहुत कठिन |

    इसमें ब्लॉगर भी जोड़ना था भाई! :)

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  9. वाह, मजा आया.
    हमारे घर तो आज तक कोई हाथ जोड़ने तक न आया.
    आपने केलेंडर डायरी व पेन तो पाया.
    घुघूतीबासूती

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  10. औरत और नेता दो ऐसे प्राणी हैं जिनका विश्लेषण करना और गालियाँ देना बहुत सरल होता है स्वयं बनना बहुत कठिन |
    kaya baat he.....bahut aabhar.....naga sach...?

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  11. वाह!!! अभी केवल लम्बाई देख के वाह किया है :)
    आते हैं पढने फ़ुरसत से :)

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  12. औरत और नेता दो ऐसे प्राणी हैं जिनका विश्लेषण करना और गालियाँ देना बहुत सरल होता है स्वयं बनना बहुत कठिन |
    लम्बे आलेख में भी तीक्ष्ण व्यंग्य का प्रवाह बनाये रखना भी इतना आसान नहीं है !
    शेफाली ब्रांडेड आलेख :)

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  13. वाह क्या बात लिख दी आपने .....
    "औरत और नेता ऐसे दो प्राणी हैं, जिनका
    विश्लेषण करना और गालियाँ देना बहुत सरल
    होता है ,स्वयं बनना कठिन |".......
    ... आपकी इस रचना का विश्लेषण करना अथवा
    इस पर कमेंट्स लिखना भी बहुत कठिन है |
    इस सूची में भारतीय cricketers को भी
    शामिल किया जा सकता है |
    सुंदर रचना के लिए बधाई |

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