वह आकाश में उडती है । पानी में तैरती है | उसने पर्वतों पर जीत की पताकाएँ फहराईं हैं ।
अन्तरिक्ष ने उसके हौसलों की गाथाएं गाईं हैं । भीग गया पर फिर भी परवाज़ किया उसने । टूट गया दम फिर भी आगाज़ किया उसने ।
उसका भी होगा बलात्कार ….
उसका भी होगा बलात्कार ....
उसके हाथों में स्कूटर, मोटरसाइकिल, जहाज और कार है | ऊँचे से ऊँची नौकरी, बड़े से बड़ा व्यापार है | बैंक बैलेंस तगड़ा है, घर है कोठी है, बँगला है । पुरुष के वह कंधे से कन्धा मिलाती है । उसका सहारा लेकर उससे भी आगे बढ़ जाती है । हर बड़े पद पर उसकी सूरत दिख जाती है । रात - दिन जी तोड़ काम करती है । मेहनत को उसकी सारी दुनिया सलाम करती है ।
उसने अकेले बच्चों को पाला । माँ - बाप, भाई - बहिन को सम्भाला | सास - ससुर को मान दिया । रिश्तेदारों को सम्मान दिया । सबके सुख - दुःख में काम आती है । सारे रिश्ते, सारे नाते अकेले निभा ले जाती है । अब उसका भी अपना एक नाम है । कहीं - कहीं तो पत्नी का नाम ही पति की पहिचान है ।
उसका भी होगा बलात्कार ...
वह इतनी मगरूर है । पिट जाने पर भी बोलती ज़रूर है | उसके मुंह पर जुबां आ गयी है । समझने और सोचने की अक्ल आ गयी है | खुद पर उठते हाथों को रोक लेती है | गलत हो कोई तो भरी सभा में टोक देती है | अधिकार की बात करती है | काम के बदले पगार की बात करती है । हर बात पर तर्क करती है । अच्छे - बुरे पर खुद फर्क करती है ।
वह इतनी मगरूर है । पिट जाने पर भी बोलती ज़रूर है | उसके मुंह पर जुबां आ गयी है । समझने और सोचने की अक्ल आ गयी है | खुद पर उठते हाथों को रोक लेती है | गलत हो कोई तो भरी सभा में टोक देती है | अधिकार की बात करती है | काम के बदले पगार की बात करती है । हर बात पर तर्क करती है । अच्छे - बुरे पर खुद फर्क करती है ।
उसका भी होगा बलात्कार ....
वह लजाती, शर्माती, सकुचाती नहीं है | चूहे, कॉकरोच, छिपकली से भय खाती नहीं है | खाट की तरह अब बिछती नहीं है । दबी, कुचली, डरी, सहमी दिखती नहीं है | अपने शरीर पर अपना हक़ मांगती है । गंदी से गंदी नज़र को झेलती है । तेज़ाब से जब जल जाती है, शक्लो - ओ - सूरत तक गल जाती है, फिर भी जुल्मो - सितम की दास्ताँ दुनिया को बतलाने बाहर निकल जाती है ।
वह लजाती, शर्माती, सकुचाती नहीं है | चूहे, कॉकरोच, छिपकली से भय खाती नहीं है | खाट की तरह अब बिछती नहीं है । दबी, कुचली, डरी, सहमी दिखती नहीं है | अपने शरीर पर अपना हक़ मांगती है । गंदी से गंदी नज़र को झेलती है । तेज़ाब से जब जल जाती है, शक्लो - ओ - सूरत तक गल जाती है, फिर भी जुल्मो - सितम की दास्ताँ दुनिया को बतलाने बाहर निकल जाती है ।
उसका भी होगा बलात्कार ....
पढ़ाई को शादी पर अब कुर्बान नहीं करती । नौकरी की कीमत पर समझौता नहीं करती । ना आए पसंद तो रिश्ता वापिस कर देती है | दहेज़ नहीं मिलेगा, पहिले ही साफ़ कर देती है । भरे मंडप से बारात को लौटा देती है । लोभियों को हथकड़ी पहना देती है । पैर किसी के अब पड़ती नहीं है । उठाकर सिर, बना कर राह अपनी, शान से निकल पड़ती है ।
पढ़ाई को शादी पर अब कुर्बान नहीं करती । नौकरी की कीमत पर समझौता नहीं करती । ना आए पसंद तो रिश्ता वापिस कर देती है | दहेज़ नहीं मिलेगा, पहिले ही साफ़ कर देती है । भरे मंडप से बारात को लौटा देती है । लोभियों को हथकड़ी पहना देती है । पैर किसी के अब पड़ती नहीं है । उठाकर सिर, बना कर राह अपनी, शान से निकल पड़ती है ।
उसका भी होगा बलात्कार ...
उसे समाज का डर नहीं रहा । अलगाव का भय नहीं रहा | अपने दम पर घर चलाती है । लेना हो तलाक ज़रा सा भी हिचकिचाती नहीं है । घुट - घुट कर जीना किसी हाल भी अब चाहती नहीं है । लोगों की नज़रों से लड़ना उसको आ गया । कितने भी कठिन हों ज़िंदगी के सवाल, अकेले हल करना आ गया ।
उसे समाज का डर नहीं रहा । अलगाव का भय नहीं रहा | अपने दम पर घर चलाती है । लेना हो तलाक ज़रा सा भी हिचकिचाती नहीं है । घुट - घुट कर जीना किसी हाल भी अब चाहती नहीं है । लोगों की नज़रों से लड़ना उसको आ गया । कितने भी कठिन हों ज़िंदगी के सवाल, अकेले हल करना आ गया ।
बता फिर … क्यूँ न हो उसका बलात्कार ? क्यूँ न हो उसकी इज्ज़त तार - तार ?
कोई वजह , कोई कोना , कोई सवाल , कोई स्थिति , कुछ भी तो नहीं छोडा आपने माहटरनी । एकदम सीधा सीधा बेध डाला है ....ये अपराध तो अब भ्रष्टाचार सरीखा ही देश और समाज की नियति बनता जा रहा है । धार बनाए रखिए और झकझोरते रहिए यूं ही ........
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शानदार!
...
दौ सो आने सच !
जवाब देंहटाएंसच कहा आपने
जवाब देंहटाएंसामाजिकता के सारे तार चीरती, व्यथा कथा। पता नहीं किस दिशा जा रहे हैं हम।
जवाब देंहटाएंमतलब हव्वा ही रहे महिला ?
जवाब देंहटाएंव्यथित करती रचना
जवाब देंहटाएंशायद मानवता ही रास्ता भटक चुकी है. सटीक.
जवाब देंहटाएंरामराम.