बरसात का मज़ा बच्चों से ज़्यादा कौन उठा सकता है भला ? साल भर स्कूल न आने वाले बच्चे बरसात में स्कूल अवश्य आते हैं | उनके स्कूल आने से यह नहीं समझ लेना चाहिए कि वे पढ़ने के लिए आए हैं | वे आए हैं बारिश में भीगने के लिए | वे आए हैं एक दुसरे को भिगाने के लिए, बारिश में धक्का देने, एक दूसरे पर गिर पड़ने के लिए | वे आए हैं नंगे पैर पानी में छप - छप करने | दौड़ने, भागने और फिसलने के लिए |
भीगना यहाँ भी है भीगना वहां भी है | टपकती हुई छतों के नीचे बैठकर भीगने और बाहर बारिश में भीगने, इन दोनों में से बच्चे बाहर भीगने का चुनाव करते हैं |
''भीगो मत, बीमार पड़ जाओगे '' ऐसा कहना फ़िज़ूल होता है, क्योंकि वे चाहते हैं भीग कर बीमार पड़ना |
''दौड़ो मत, गिर जाओगे '' ऐसा कहना भी व्यर्थ होता है, क्योंकि वे चाहते हैं गिरें और कीचड़ में लथपथ हो जाएं |
बच्चों के लिए ये ऐसे बरसाती जुमले होते हैं, जिन्हें वे एक कान से भी नहीं सुनते हैं |
ऐसे मौसम में बच्चों की कोशिश होती है कि अध्यापक स्कूल न आने पाएं | आएं भी तो कक्षा के अंदर ना आएं | कक्षा के अंदर आएं भी तो उन्हें ना बुलाएं | उन्हें बुलाएं भी तो पढ़ने के लिए न कहें | पढ़ने के लिए कहें भी तो कोर्स का न कहें | अंताक्षरी, नाच, गाना, चुटकुला, कविता, कहानी कुछ भी चलेगा |
इन दसेक सालों में बच्चे कमोबेश अभी भी वैसे ही हैं | बरसात भी वैसी ही है | कुछ बदला है तो वे दो नदियां जिन पर पुल बन चुके हैं |
मेरे पास बरसात के मौसम से जुडी जो यादें हैं, उनमे सबसे ज़्यादा यादें इन दो नदियों और दो ही भयंकर नालों की है | नौकरी के शुरुआत में ही लोगों ने डरा रखा था '' बाप रे ! उधर तो दो - दो नाले आते हैं | बरसात के मौसम में तो बड़ी मुश्किल होगी | दो नदियां भी रास्ते में पड़ती हैं | चार महीने बड़ी मुसीबत रहेगी | उधर ही रुकना पडेगा ''|
लोग दो नदियों और दो नालों को पार करके लोग अपने गंतव्य तक पहुँचते थे | नदियों के नाम भी सामान्य न होकर के ''भाखड़ा, '' दाबका '' जैसे थे | नाम सुनते ही लगता था कि ये तो बाढ़ आने के लिए ही बनी होंगी | इसके उलट ''गंगा', 'यमुना' नाम का नाम लेते ही ऐसा लगता है जैसे कि ये नदियां प्यास बुझाने के लिए ही बनी हैं , बाढ़ से इनका दूर - दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं होता होगा |
नाले तो अभी भी वैसे के वैसे हैं | तब नालों के नाम भी खासे खतरनाक मालूम होते थे 'कर्कट नाला 'और ''मेथी शाह नाला ''|
पुराने लोग बताते थे कि इन दो नदियों को बरसात के दिनों में खतरनाक बनाने के लिए उस इलाके का एक बहुत बड़ा गिरोह है | यह गिरोह बारिश होते ही नदी से थोड़ी दूर पर जाकर मिट्टी को एक जगह पर जमा कर देते थे जिससे नदी का बहाव सीमित हो जाता था और वह कॉज़वे तक आते - आते भयानक लगने लगती थी | आस - पास के कुछ लोग जो रात के समय इस पुनीत कार्य को अंजाम देते थे, सुबह अपने - अपने ट्रैक्टर - ट्रौलिओं के साथ बाढ़ वाले स्थल पर मौजूद रहते थे | पार जाने वालों से अच्छा - ख़ासा शुल्क लेकर उनकी गाड़ियों को ट्रॉलियों के ऊपर रखकर पार कराते थे | बरसात के मौसम में रोज़गार कैसे पैदा किया जाता है, इस कला में वे माहिर थे | ये उनका स्टार्ट अप प्रोग्राम था, जो बरसात में स्टार्ट होता था और फंसे हुए यात्रिओं को अप कराता था | वर्तमान में दोनों नदियों पर पुल बन जाने के कारण इस स्टार्ट अप पर ग्रहण लग चुका है |
इनके साथ - साथ कुछ साहसी लड़के भी याद आते हैं जो उफनती हुई नदी के दोनों तरफ खड़े रहते थे | नदी का पानी कभी कम हो जाता था तो कभी बहुत तेज | इतना तेज कि बस तक बह जाए | वे तमाशा देखते थे | ताली बजाते थे | जब कोई दुःसाहसी इस नदी को पार करने की कोशिश करता था, वे उसका उत्साह बढ़ाते थे | सीटी बजाते थे और जब कोई नदी को पार करने में सफल हो जाता था, तो हिप - हिप हुर्रे कहते थे | जब कोई नदी पार नहीं कर पाता और रास्ते में डूबने लग जाता था, तो वे दौड़ पड़ते थे उसे बचाने के लिए | फिर ये अपनी जान की भी परवाह नहीं करते थे | उफनते हुए रौद्र रूप धारण की हुई नदी के बीचों - बीच अंगद की तरह पाँव जमा कर खड़े हो जाते थे और उस डूबते हुए को '' हईशा .... हईशा ' कहकर पार करा लेते थे |
नदी के पानी को देखकर जिनका कलेजा मुंह को आ जाता था, उनका हौसला बढ़ाते थे | उनकी गाड़ियों को स्वयं चला कर मय गाड़ी नदी पार करवा देते थे | वे दिखाना चाहते थे कि नदी पार करना उनके बाएं हाथ का खेल है | वे बिना तमगे के हीरो थे | बिना अभिनय किये नायक थे | बरसात में इनको देखना आठवें आश्चर्य को देखना होता था | आम दिनों में जो गुंडागर्दी, हल्ला - गुल्ला मार -पिटाई हंगामा करते हुए पाए जाते थे , बरसात के दिनों में उनका रूप ही बदल जाता था |
कोई पेड़ बहकर आ जाए या मोटे लट्ठे बीच नदी में आकर अटक जाएं तो ये बाँकुरे भीड़ को चीर कर, बड़े - बड़े डग भरकर, उस लट्ठे को किनारे लगा आते थे या पेड़ को आरी से मिनटों में चीर डालते थे | जनता तब साँसे रोके हुए सारा दृश्य देखती रहती थी |
भीड़ में से कुछ लोग चाहते थे कि वे अपनी जान जोखिम में न डालें | ज़्यादातर चाहते थे कि वे जाएं और उनके लिए रास्ता खोलें | वे किनारे से ''शाबास, शाबास'' चिल्लाते थे |
जाने अब कहाँ होंगे कैसे होंगे क्या करते होंगे ये बिना नाम के बरसाती नायक ? पुल बनने के बाद ये शायद फिर से अपने पुराने गुंडागर्दी और आवारागर्दी के कार्यक्रम में लौट गए होंगे |
उन दिनों नदी और नाले के इस पार खड़े - खड़े कई पुराने दोस्त मिल जाया करते थे | बिछुड़े हुए दोस्तों को मिलाने में इन दोनों का अभूतपूर्व योगदान हुआ करता था | नई नियुक्ति वालों से भेंट होती थी | वहीं पर खड़े- खड़े, पानी के कम होने का इंतज़ार करते हुए आपस में कई तरह की चर्चाएं हो जाया करती थीं , मसलन ''कौन से स्कूल में हो ''?'' कब से हो'' ? ''आजकल ट्रांसफर का क्या रेट चल रहा है'' ? ''कौन कितना देकर किस स्कूल में आया है'' ? ''कौन रिटायर होने वाला है'' ? ''किसका प्रमोशन होने वाला है'' ? इत्यादि इत्यादि | अपनी - अपनी गोटियाँ फिट करने के जुगाड़ सोचे जाते थे |
उन दिनों मुलाक़ात के लिए फिर से अगली बरसात का इंतज़ार करना होता था |
चाय की केतली पकडे हुए दो - तीन स्थानीय बच्चे नाले के आस - पास घूमते रहते थे | पानी तो पता नहीं कब उतरेगा , सोचकर चाय पीते - पिलाते हुए, लाया हुआ नाश्ता खाते हुए , ट्रांसफर का जुगाड़ ढूँढा जाता था |
अपने - अपने स्कूलों और दफ्तरों के साहबों को फोन खटकाए जाते थे | उन्हें पानी की स्थिति से अवगत कराया जाता था | वे तुरंत बिना प्रतिवाद किये अवगत हो भी जाते थे | किसी तरह से दो - तीन घंटे देरी से ही सही, स्कूल पहुँच जाते थे तो साहब लोग बिना कुछ कहे साइन करवाने रजिस्टर भेज देते थे | ''हम क्या करें बाढ़ आई थी तो',' ''ये आपकी समस्या है '',''नौकरी नहीं कर सकते तो छोड़ दो '' जैसे जुमले किसी साहब ने नहीं कहे |
बालिका स्कूलों की शिक्षिकाएं सबसे ज़्यादा कांपती थीं | उफनते नाले से भी ज़्यादा खतरनाक वे 'प्रधानाचार्या' नामक प्राणी को मानती थीं | कुछेक तो डर के मारे विकराल रूप धरे हुए नाले को पार करने के बारे में गंभीरता से विचार करने लगतीं थीं | नाले के पास खड़े कई लोगों की तरफ आशा से भरी नज़रें दौडातीं लेकिन कोई भी उस नाले में गाड़ी डालने की हिम्मत नहीं करता | वे दुखी हो जातीं | फिर एक सीनियर अध्यापिका, ''क्या कर लेगी प्रिंसिपल ज़्यादा से ज़्यादा ? कैज़ुअल लगा देगी, फांसी पर थोड़े ही लटका देगी '' कहकर सांत्वना बंधाती थी | अपने बैग से एक सफ़ेद कागज़ निकालती और उपस्थित स्टाफ के हस्ताक्षर उस कागज़ में ले कर रख लेती कि अगले दिन प्रधानाचार्या को सौंप देंगे और बाढ़ की विकराल स्थिति से अवगत करा देगी | आगे जैसी उसकी मर्ज़ी होगी, कैज़ुअल लगाए या साइन करवाए |
अक्सर चौदह में से छह कैज़ुअल ये नदी - नाले अपने साथ बहा ले जाते थे |
अब समय बहुत बदल गया है
नदियों के ऊपर पुल हैं |
स्कूलों, कार्यालयों में बायोमेट्रिक है |
साहबों में साहबगिरी है |
नौजवान अभी भी हैं लेकिन जान बचाने के लिए नहीं बल्कि बहते हुए की सेल्फी लेने के लिए हैं |
रेन है लेकिन रेनी डे नहीं है |
नाले हैं लेकिन पार कराने वाले नहीं हैं |
कुल मिलाकर बाढ़ भी है, बरसात भी है, बस साथ देने वाले नहीं है |
अच्छा लग रहा है आप नियमित लिख रही हैं :)
जवाब देंहटाएंबहुत ही सटीक, शुभकामनाएं.
जवाब देंहटाएंरामराम
#हिन्दी_ब्लॉगिंग
बरसात, नदी, नाले और बरसाती हीरो..इतने से लेख में आपने कितना कुछ भर दिया है..पढ़कर सारा चित्र जैसे नजरों के सामने आ गया..बधाई इतने सुंदर लेखन के लिए..
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरूवार (13-07-2017) को "पाप पुराने धोता चल" (चर्चा अंक-2665) (चर्चा अंक-2664) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
एक बरसात, अनगिनत, अलग-अलग यादें....ये याद पहली बार पढ़ी ....अच्छा लगा...
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